दु:ख के बादल
दु:ख से घिरे हुए बादल ,
रुक रुक कर बरस रहे हैं।
कोना कोना भीग रहा ,
एक एक करके अपने ,
हमसे बिछड़ रहे हैं।
धैर्य हमारा टूट रहा ,
अपनों से नाता छूट रहा।
किस्मत की मारी ,
हाय! बनी बेचारी !
कलेजा फट रहा है,
दिल तड़प रहा है।
गर्जना हो रही है,
एक के ऊपर एक
बिजली गिर रही है ,
कैसे सँभालें चेतना !
अँखियों से आँसू बह रहे हैं।
मानवता दहलीज पे
साँसें तोड़ रही है,
विकल्प है तो बतलाओ !
कोई है ! तो समझाओ ,
भरोसा उठ गया है,
तड़प तड़प के ,
आँचल सिमट रहा है।
— चेतना सिंह