गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

घर क्या छुटा दर-ब-दर हो गए
पराए क्या अपने भी दूर हो गए

गांव अब शहर होता चला गया
लोगों के भोलेपन छूटते चले गए

शहर की भीड़ में सब खोते गए
अपने अस्तित्व को खोते चले गए

शहर बनाने में पेड़ सब काटे गए
जहरीली हवा की साँस भरते गए

जीजिविषा के वास्ते सारा जग
कठिनाई सब सहते चले गए

दुख हो या सुख हो सहना ही है
मान यही लोग सब सहते गए

— मंजु लता

डॉ. मंजु लता Noida

मैं इलाहाबाद में रहती हूं।मेरी शिक्षा पटना विश्वविद्यालय से तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई है। इतिहास, समाजशास्त्र,एवं शिक्षा शास्त्र में परास्नातक और शिक्षा शास्त्र में डाक्ट्रेट भी किया है।कुछ वर्षों तक डिग्री कालेजों में अध्यापन भी किया। साहित्य में रूचि हमेशा से रही है। प्रारम्भिक वर्षों में काशवाणी,पटना से कहानी बोला करती थी ।छिट फुट, यदा कदा मैगज़ीन में कहानी प्रकाशित होती रही। काफी समय गुजर गया।बीच में लेखन कार्य अवरूद्ध रहा।इन दिनों मैं विभिन्न सामाजिक- साहित्यिक समूहों से जुड़ी हूं। मनरभ एन.जी.ओ. इलाहाबाद की अध्यक्षा हूं। मालवीय रोड, जार्ज टाऊन प्रयागराज आजकल नोयडा में रहती हैं।

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