कविता

अब घर में घुसकर मारेंगे

जब जी चाहा सीमा लाँघी,
जी भर की तुमने चालाकी,
खूँ से घाटी को लाल किया,
वाशिंदों को बेहाल किया,
हमने न धीरज-पथ त्यागा,
ना तोड़ा संयम का धागा,
तुमको बातों से समझाया,
न आँख दिखाई, धमकाया,
तुमने हमको कायर समझा,
संकल्पहीन, निर्बल समझा,
लेकिन ये भूल तुम्हारी थी,
हमने कब बाजी हारी थी?
तुम नाहक ही फुफकार गये
सिंह सोये थे ललकार गये,
सिंदूर की कीमत ना जानी,
नादान थे तुम की मनमानी,
हमने भी प्रण ये साधा था,
अबलाओं से ये वादा था,
कि अपना वचन निभायेंगे,
ज़ालिम को मज़ा चखायेंगे,
हम हारे थे न हारेंगे,
अब घर में घुसकर मारेंगे।

— शरद सुनेरी

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