गीत/नवगीत

धधकाया आकाश सिंदूरी, ज्वाला ने रजनी काली में

शर्म करो तुम छेद कर रहे,खाते हो जिस थाली में,
क्या अंतर है तुममें और, उस कीड़ेवाली नाली में।

कुत्ता भी उपकार करो तो, चरणों में बिछ जाता है,
काँधों पर धर कर बोझे को, नंदी फ़र्ज़ निभाता है,
दुत्कारो मारो चिल्लाओ, भेद प्यार ना गाली में
शर्म करो तुम छेद कर रहे,खाते हो जिस थाली में।1।

आस्तीन के नागों तुम, जब चाहो ज़हर उगलते हो,
केवल डसते नहीं दूध में, अपना गरल भी भरते हो,
हमने तुम्हें परोसा अमृत, विष भर डाला प्याली में!
शर्म करो तुम छेद कर रहे,खाते हो जिस थाली में।2।

नमक भले ही थोड़ा हो, पर आवश्यक है खाने में,
नमकहलाल हैं पूजे जाते, युग-युग सदा ज़माने में,
नमकहरामों-गद्दारों तुम, समा न पाओ गाली में,
शर्म करो तुम छेद कर रहे,खाते हो जिस थाली में।3।

नरभक्षी-जल्लादों की अब, कौम उखाड़ी जाएगी,
आतंकी माताओं की, अब कोख उजाड़ी जाएगी,
रणचंडी फुफकार रही है, सीता बदली काली में,
शर्म करो तुम छेद कर रहे,खाते हो जिस थाली में।4।

सिंदूर सुहागन का गौरव, जब माँगों को है भर जाता
तिलक सिंदूरी सरहद पर, वीरों को मिटने कह जाता
धधकाया आकाश सिंदूरी, ज्वाला ने रजनी काली में,
शर्म करो तुम छेद कर रहे,खाते हो जिस थाली में।5।

— शरद सुनेरी

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