पापीहा
मेरे इन प्यासी पलकों पर
ख्वाब सुनहरे किसके हैं,
क्या वही है जिनकी खातिर
हम रात रात भर सिसके हैं।
एक क्षण कभी ऐसा न बीता
आये ना जब तुम सुधियों में,
तेरी चाहत कुछ औऱ ही थी
पर हम न थे उन रतियों में।
इस अहमक की परिधि से
तुम तो कोसो ही दूर रहे,
फिर भी इस बिरहन के
तुम ही तो नैनो के नूर रहे।
प्रेम,प्रीत, चाहत अनुरागी
ये चकोर ही बन सकता है,
उसकी बाते वो ही जाने
किसकी क्या विवशता है।
रह गई उस पपीहे की भाँति
पानी के मध्य भी प्यासी,
तृषित उर की प्यास बुझाने
नहीं बनी किसी की दासी।
— सविता सिंह मीरा