गीत/नवगीत

थोड़ा और

हर तरफ मचा है एक ही शोर
बस थोड़ा और, बस थोड़ा और ।

कितना भी हो सब कम, लगता है
और अधिक की चाहत करता है
क्या यही है जीवन का निचोड़
बस थोड़ा और, बस थोड़ा और।

जो है उसमें संतुष्टि नही है

सारी मुसीबतों की वजह यही है
मुड़ जाते कदम पतन की ओर
बस थोड़ा और, बस थोड़ा और।

इतना कुछ प्रभु ने हमें दिया है
पर लोभ ने मन को घेर लिया है
ईर्ष्या और द्वेष का, है ओर न छोर
बस थोड़ा और, बस थोड़ा और।

कितनी जरूरत है, पता नही है
वृक्ष तो है पर, अब लता नही है
है अंतिम बेला अंधियारा घनघोर
बस थोड़ा और, बस थोड़ा और।

चाहतों का कोई अन्त नही है
कुछ भी जीवन पर्यन्त नही है
सब कुछ होकर,न हैं भाव विभोर
बस थोड़ा और, बस थोड़ा और।

कल की सोचकर, बहुत चिंतित हैं
शायद इसीलिए आज व्यथित हैं
यही विचार मुझे रहे झकझोर
बस थोड़ा और, बस थोड़ा और।

कोई लक्ष्मण रेखा खींचनी पड़ेगी
तब ही शांति की अनुभूति होगी
खैंच के रखनी होगी मन की डोर
बस थोड़ा और, बस थोड़ा और।

बड़ी विलक्षण है समय की धारा
मन के समक्ष इंसान दिखे बेचारा
अपने ऊपर ही, न चले कोई जोर
बस थोड़ा और, बस थोड़ा और।

चहुं ओर आनंद बिखरा पड़ा है
फिर तू किस दुविधा में खड़ा है
तेरे दिल में कब उठेंगी हिलोर
बस थोड़ा और, बस थोड़ा और।

हर तरफ मचा है एक ही शोर
बस थोड़ा और, बस थोड़ा और।
बस थोड़ा और, बस थोड़ा और।

— नवल अग्रवाल

*नवल किशोर अग्रवाल

इलाहाबाद बैंक से अवकाश प्राप्त पलावा, मुम्बई

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