चुप्पी का सन्नाटा
कभी बैठ अकेले,
धुंधले चांद की परछाईं में,
सांसों की लय पर सुनना,
वक़्त की खामोश धुन,
जहां हर सफ़ेद लहर,
मौसम की थकी आह है।
वो जो नयनों के कोनों में,
सफ़ेद हो चली है आस,
वो उम्र नहीं,
बस सहमी हुई मुस्कान है,
किसी छूटे हुए स्वप्न की,
कोमल सी अनुगूंज।
तुम्हें जो बालों की सफेदी दिखी,
वो अनकही कहानियों का बोझ है,
आंधियों में जलते दीप का हठ है,
जिसने हर रात उजाले की गुहार की।
कभी देखना,
रजतरेखा की झिलमिलाहट,
हर श्वेत रेशा,
निस्वार्थ तप का अमिट स्मारक है,
जो न बूढ़ा हुआ, न झुका,
बस और अधिक उजला हुआ।
— प्रियंका सौरभ