अनकही परछाइयाँ
वो जो साड़ी के किनारे में,
सिहरती हैं चुप्पी की नर्म लहरें,
वो जो पायलों में खनकती हैं,
अधूरे स्वप्नों की डरी हुई दस्तकें,
उन्हें भी शायद प्रेम कहते हैं।
कभी जो झुकी थी आँखें,
किसी अनमोल पलों की चुप सहमी कसम,
हथेलियों में बंधी,
तब प्रेम ने फुसफुसाया था –
“तुम्हारा होना ही मेरा होना है।”
वो जो झुक जाता है,
हर बार तुम्हारे साड़ी के कोर से,
वो सिर्फ़ घुटने नहीं मोड़ता,
बल्कि आत्मा की गहराइयों में,
मौन की कोई अनगिनत सीढ़ियाँ उतरता है।
जब तुम आंचल सहेजती हो,
वो अपने सपनों की सलवटें संभालता है,
तुम्हारी मुस्कान की चौखट पर,
वो अपनी दुनिया की हर चिंता रख आता है।
शायद प्रेम यही है –
न घुटनों की मोहर, न शब्दों का आभूषण,
बस एक चुप्पी का विस्तार,
जो हर साड़ी की तह में छुपा है,
और हर 500 की शर्ट में संवरता है।
— प्रियंका सौरभ