कविता

दिल से जुड़े

टेक्नोलॉजी का यह दौर,
जहाँ रिश्ते सिमटते जा रहे हैं,
जहाँ उंगलियों की सरसराहट में
ममता की गर्माहट खो रही है,
जहाँ नज़रों की मुलाकात,
अब स्क्रीन की रोशनी में घुल रही है।

वो छोटे-छोटे पलों का जादू,
जो कभी एक मुस्कान से झलकता था,
अब किसी नोटिफिकेशन की आहट में,
खो जाता है।
बच्चों की हंसी,
जो कभी आँगन की मिट्टी से महकती थी,
अब गेमिंग की आभासी दुनिया में,
गुम हो गई है।

रिश्ते जो कभी एक पत्ते की सरसराहट,
या एक छोटे से स्पर्श में बंध जाते थे,
अब डिवाइस की बैटरी से जुड़ गए हैं।
माँ की थपकी, पापा की पुकार,
भाई-बहन का हँसी-ठिठोली,
सब जैसे स्क्रीन के उस पार,
अजनबी बनते जा रहे हैं।

पर क्या रिश्तों की ये गूंज,
कभी वाइब्रेशन की हलचल से,
महसूस की जा सकती है?
क्या वो आँखों की नमी,
कभी ‘रिच एमोजी’ से बयां हो सकती है?

समय है, फिर से लौटने का,
उन मासूम पलों की ओर,
जहाँ रिश्ते दिल से जुड़ते थे,
न कि किसी नेटवर्क से।
जहाँ हंसी की गूंज,
मोहल्ले की गलियों में गूंजती थी,
न कि किसी हेडफोन में सिमट जाती थी।

रिश्तों की गूंज को जिंदा रखना है,
तो वक़्त है कि हम अपनों के पास,
बिना किसी नेटवर्क की बाधा के,
दिल से जुड़े।

— प्रियंका सौरभ

*प्रियंका सौरभ

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, (मो.) 7015375570 (वार्ता+वाट्स एप) facebook - https://www.facebook.com/PriyankaSaurabh20/ twitter- https://twitter.com/pari_saurabh

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