आ रे मेघा
आ रे मेघा आ जा रे, अमृत बूँदें बरसा रे ।
अब ना इतना तरसा रे, अमृत बूँदें बरसा रे ।
जलती धरा बढ़ा है अतिशय तीव्र ताप,
पशु पक्षी प्राणी सब कर रहे हैं विलाप,
सूखे जा रहे कूप, नदी, ताल तलैया सारे,
प्यासे प्राणी व्याकुल फिरते हैं मारे-मारे,
देख वसुधा की विह्वल दयनीय दुर्दशा रे,
अब ना इतना तरसा रे, अमृत बूँदें बरसा रे ।
चल रही भयावह लू, जियरा भी घबराएं,
दाना पानी हुआ मुश्किल ज़िया न जाएं,
जेठ दुपहरिया लगे है भयानक श्राप सी,
सताए भीषण गर्मी चुभन अभिशाप सी,
इतंजार करते बीता एक लम्बा अरसा रे,
अब ना इतना तरसा रे, अमृत बूँदें बरसा रे ।
धरा प्यासी, आकुल कृषक रोंएं छुप छुप,
पेड़ -पौधे झुलसे, कोयल पपीहा चुप चुप,
नीरद नीर बरसा प्रफुल्लित कर दे तन मन,
करूँ प्रार्थना हरा-भरा कर दे तू वन उपवन,
रिमझिम रिमझिम “आनंद” फुहारें बरसा रे,
अब ना इतना तरसा रे, अमृत बूँदें बरसा रे ।
आ रे मेघा आ जा रे, अमृत बूँदें बरसा रे ।
अब ना इतना तरसा रे, अमृत बूँदें बरसा रे ।
— मोनिका डागा “आनंद”