आ विराजो यहाँ!
आ विराजो यहाँ,
छोड़ करके जहान;
हृदय मेरे बसो,
छेड़ मर्मर ध्वनि!
है स्वचालित जगत,
माया विचरा रहा;
मोह वश बह रहा,
कुछ किए जा रहा!
दृष्टि तुमरी सभी,
सृष्टि घूमी रही;
देख पाते कोई,
लीला क्या हो रही!
तुम सनातन हो,
सत्ता सँभाले हुए;
शाख़ हर आँख रख,
कोपलें भर रहे!
पुष्प बन शिशु सिहर,
राग सिहरन में भर;
‘मधु’ की श्वाँसों सिमट,
देखो तुम हो कहाँ!
— गोपाल बघेल ‘मधु’