कविता

केवल यादों के अवशेष रहते हैं दिलों में हमेशा

गुजरता हूँ जब भी कभी गांव की गलियों से
देखता हूँ खंडहर बने वह घर जो कभी आबाद थे
गिर चुके है आधे स्लेट छत के ऊपर से
लगता है जैसे झांक रहा कोई छोटी मोरी से

बन्द पड़ा है नक्काशी किया हुआ दरवाजा
कई दिन बहुत मेहनत से बनाया था लुहार ने
सांकल लगी हुई है ऊपर कुंडी से जंग लगी हुई
बहुत दिनों से खोली नहीं है किसी ने

आंगन के किनारे पड़े है सिल बत्तू
जिस पर पीसती थी घर की औरतें
कभी कुल्थ की दाल बेहड़ी रोटी बनाने को
साथ में हरी मिर्च और धनिया बीच में डालने के लिए

रसोई के बाहर पौड़ियों के नीचे बने कोठर में
पड़ा है मिट्टी का बना पुराना सा खाली घड़ा
जो भरा रहता था हरदम पीते थे पानी घर के लोग
ढो कर लाती थी बावड़ी से घर की स्त्रियां

कहां गए वह सब लोग जो रहते थे इन घरों में
क्यों पड़े है इतने वीरान बन गए हैं खंडहर जैसे
कहां गई वह चहलपहल जो लगी रहती थी दिन भर
किसी बच्चे की किलकरियाँ क्यों सुनाई नहीं देती

ऊपर छत पर नज़र आ रहा वीरान पड़ा ल्यारु
बीच में रखा है त्रियूँ जिसके ऊपर रखा है तंबैहड़
जहां जलती थी रात भर आग होती थी हंसी ठिठोली
मानो कर रहा इंतज़ार उन लम्हों का कोई आए और जलाये

घर के पास खाली बन्द पड़ी है पशुशाला
तीन भैंसें बैल बकरी भेड़ें बंधी होती थी जहां
थोड़ी सी आहट पे कान खड़े हो जाते थे जिनके
मिमियाने लगती थी बकरियां रंभाने लगती थी भैंसें

अब भी नज़र आ रहे मिट्टी के बने चकन्धों के अवशेष
सड़ रहे हैं वह मोटे शहतीर टिकी थी जिन पर इमारत
एक दीवार पर उग आया है पीपल का छोटा सा पेड़
दिख रही है बहुत सारी झाड़ियां आंगन में

क्या कोई आएगा बीते दिनों को लौटाएगा
वही खुशियां चहलपहल लौटेगी क्या फिर से
नहीं यह सम्भव नहीं बीता वक्त कभी लौटा नहीं करता
केवल यादों के अवशेष रहते हैं दिलों में हमेशा

— रवींद्र कुमार शर्मा

*रवींद्र कुमार शर्मा

घुमारवीं जिला बिलासपुर हि प्र

Leave a Reply