बाल कहानी : झबरू और बच्चे
पता नहीं उसे कौन लाया था ? कहाँ से आया था ? कैसे आया था वह ? कोई नहीं जानता। हफ्ते भर से वह दिख रहा था। बस दिन भर पूरे गंजपारा के गंगा मैया कॉलोनी भर घूमते रहता था। कोई न कोई उसे खाने के लिए कुछ न कुछ दे देता था। पेट भर जाता था उसका। रात को किसी मकान या सार्वजनिक बिल्डिंग्स के टीन-टप्पर के नीचे रह लेता था; और जैसे भी हो रात गुजार लेता। चूँकि ठंड का समय था; क्या करता बेचारा, था तो एक छोटा सा पिल्ला। अब चाहे कोई भी जीव हो, ठंड भला कहाँ किसी पर तरस खाने वाली है। ठंड के मारे बेचारा रात भर कूँ..कूँ… करते रहता। जैसे-जैसे ठंड बढ़ती, उसका कूँ.. कूँ… बढ़ने लगता।
वह छोटा सा पिल्ला कॉलोनी के बड़े-बुजुर्गों को अच्छा तो लगता ही था; साथ ही, बच्चों को भी बहुत पसंद था। दिखता भी तो था बहुत सुंदर ! सफेद-मटमैला चटकीला रंग ! पत्ते जैसे छोटे-छोटे हिलते-डुलते कान ! कंचे जैसी छोटी-छोटी आँखें ! नन्हीं-नर्म टहनियों की तरह छोटे-छोटे पैर ! वाह… ! और छोटी सी झबरीली पूँछ भी ! अपनी पूँछ की वजह से ही तो उसे झबरू नाम मिला था।
कॉलोनी के बच्चों का छुट्टी के दिन; या फिर रोज छुट्टी होने के बाद झबरू के साथ खेलना-कूदना शुरू हो जाता था। उन्हें झबरू को बिस्किट्स, रोटी, नड्डे खिलाना, उसके साथ आगे-पीछे दौड़ना, उसके नरम रोयेंदार बदन पर हाथ फेरना, और उसके नाखूनों को बार-बार गिनना बड़ा अच्छा लगता था। साथ ही; झबरू को भी बच्चों के साथ रहने में बहुत आनंद आता था।
एक दिन की बात है। बच्चे शनिवार के सुबह-स्कूल की छुट्टी होने के बाद घर आए। चार जने एक जगह इकट्ठे हुए- मनु, यश, बिट्टू और टोनी। मनु और यश कक्षा छटवीं के छात्र थे। टोनी सातवीं पढ़ता था; और बिट्टू पाँचवीं।
प्लान बना ताँदुला बाँध घूमने जाने के लिए। अपने साथ बिस्किट के कुछ पैकेट्स, छोटा सा एक मिक्सचर पैकेट और पानी के बोतल रख लिये। फिर चारों घूमने जाने के लिए कॉलोनी से निकल ही रहे थे कि उन पर झबरू की नजर पड़ गयी। वह तुरंत दौड़ते-दौड़ते ऐसे आया, जैसे वह समझ गया कि वे चारों उसे छोड़कर कहीं घूमने जाने वाले हैं। अब झबरू को भी चारों बच्चे अपने साथ ले जाने को लिए तैयार हो गए। फिर वे निकल पड़े। आगे-आगे बच्चे और पीछे-पीछे झबरू।
बच्चे ताँदुला बाँध के पास स्थित एक गार्डन में पहुँचे। बाँध के चारों ओर की हरियाली सबके मन को भा गयी। अलग-अलग फूलों की क्यारियाँ बनी हुई थीं। बड़े प्रसन्नचित्त चारों मित्र घूमने लगे। उनके पीछे-पीछे झबरू भी चल रहा था। झबरू जहाँ अपने लायक कुछ दिखता तो सूँघने-साँघने लग जाता, तो कहीं पर एक पैर उठा कर हो जाता शुरू।
गार्डन की विशेष रौनक गेंदा, गुलाब, चम्पा, चमेली की क्यारियों को निहारते हुए मनु बोला- “अरे वाह ! वो देखो न, बड़े खूबसूरत लग रहे हैं।” फिर कनेर और गुड़हल के पुष्पों को बिट्टू देख लिया। बोला- ” चलो न, गुड़हल के फूल तोड़ते हैं।” यश उन्हें मना करते हुए बोला- “नहीं..! नहीं यार… ! ऐसा नहीं करते ! मेरे भाई, फूल डालियों पर ही अच्छे लगते हैं। ये सब सुंदरता की वस्तुएँ हैं। इस बगीचे की रौनक हैं।”
“और फूलों को तोड़ना, मतलब गार्डन को नुकसान पहुँचाना है। ये अच्छी बात नहीं है।” टोनी ने सबको एक झूले की ओर इशारा करते हुए कहा।
गार्डन के नजारों में चारों बच्चे इतना खो गए कि झबरू कहाँ पर छुट गया, कि किधर चला गया, उन्हें बिल्कुल ही पता नहीं चला। सभी असमंजस में पड़ गए। उन्हें नन्हे झबरू की बड़ी फिक्र होने लगी। इस बात का भी भय सताने लगा कि घर लौटने पर उन्हें घरवालों से डाँट पड़ेगी। फिर सबके-सब झबरू को ढूँढने में लग गए।
झबरू को ढूँढते-ढूँढते दोपहर हो गयी। चारों बच्चे बहुत परेशान हो गये। वे लोगों को पूछते थे, तो नहीं में जवाब मिलता था। कई लोग तो उनका मजाक उड़ाते थे कि ये सब गार्डन घूमने आए हैं, या पिल्ला ढूँढने। तभी बच्चों को जरा राहत तब मिली जब एक लड़के ने बताया- “हाँ, मैंने लगभग दस बजे एक पिल्ले को उस कदम पेड़ के निकट एक कुएँ ओर जाते हुए देखा है।”
कुएँ का नाम सुनते ही बच्चों के पाँव तले की जमीन खिसकने लगी। काँप गए। झबरू को याद करते हुए आँखें नम हो गयी। झबरू की सलामती के लिए उनके होठों पर भगवान से विनती की बुदबुदाहट शुरू हो गयी। फिर मनु कदम वृक्ष की ओर सर घुमाते हुए कहा- “चलो जल्दी करो। देखते हैं।”
सभी लम्बे कदमों के साथ कदम वृक्ष के पास पहुँचे। कुएँ को झाँकते हुए यश बोला- ” यह कुआँ तो बिल्कुल उथला है। कचरों से पटा हुआ है। पॉलीथिन ही पॉलीथिन दिख रहे हैं।”
“और बिल्कुल अंधेरा भी।” टोनी ने भी झाँकते हुए कहा।
तभी बिट्टू बोला- “हाँ यार ! बिल्कुल अंधेरा है। पर ठीक से सुनो तो जरा। कुछ बजने सी आवाज आ रही है न ?”
मनु बोला- “नहीं तो ! मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है।”
बिट्टू बोला- “आ, यहाँ पर आकर सुनो ना !”
फिर यश एक पतली सी लाठी लेकर कुएँ के अंदर टटोलने लगा। तभी कूँ… की आवाज आई। सभी समझ गए कि यह तो झबरू की आवाज है। फिर तुरंत झबरू को कुएँ से बाहर निकालने के जुगाड़ में लग गए। वहीं पर पड़ी एक रस्सी को लेकर मनु कुएँ में उतरा। अंदर बड़ा खतरा था। कीचड़ ही कीचड़। पॉलीथिन से झबरू पूरी तरह से लिपटा हुआ था। एकदम घबराया हुआ था। मुँह तक पॉलीथिन से फँस गया था। पैर गंदे हो गए थे। वह लगभग मुर्छा की हालत में था। अब जैसे भी हो, बच्चों को झबरू को कुएँ से बाहर निकालने में सफलता मिल गयी। झबरू बहुत घबराया हुआ था। काँप रहा था। बच्चों ने उसे बोतल के पानी से धोया। पत्तों से पोंछा। कुछ बिस्किट्स खिलाए।
फिर बच्चों ने झबरू को लेकर घर की राह पकड़ी। इस बार वे झबरू को बारी-बारी पकड़ कर चल रहे थे। रास्ते भर झबरू को दुलार रहे थे। खूब प्यार कर कर रहे थे।
— टीकेश्वर सिन्हा “गब्दीवाला”