आकाशवाणी की गूंज: भारत में रेडियो प्रसारण का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विकास
भारत में रेडियो प्रसारण की शुरुआत एक ऐतिहासिक घटना के रूप में दर्ज है, जिसने संचार के आधुनिक युग का उद्घाटन किया। 1923 में बॉम्बे रेडियो क्लब द्वारा की गई यह पहल उस समय की तकनीकी सीमाओं के भीतर एक क्रांतिकारी कदम था। यह प्रसारण सीमित दूरी तक ही संभव था और मुख्यतः शौकिया रेडियो प्रेमियों के प्रयास से संभव हो पाया था। यह वह समय था जब रेडियो केवल एक विलासिता की वस्तु समझा जाता था, लेकिन जल्द ही यह भारत की जनमानस से जुड़ने का सबसे सशक्त माध्यम बन गया।
23 जुलाई 1927 को ‘इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी’ (IBC) की स्थापना भारत में रेडियो के औपचारिक व्यावसायिक उपयोग की शुरुआत थी। मुंबई और कोलकाता में स्थापित रेडियो स्टेशन समाचार, संगीत, नाटक और शैक्षिक कार्यक्रमों का प्रसारण करते थे। यद्यपि यह कंपनी 1930 में वित्तीय संकटों के चलते बंद हो गई, परंतु इसने भारत में रेडियो की लोकप्रियता और संभावनाओं को सिद्ध कर दिया था। इसी संदर्भ में ब्रिटिश सरकार ने ‘इंडियन स्टेट ब्रॉडकास्टिंग सर्विस’ (ISBS) की स्थापना की, जो आगे चलकर 8 जून 1936 को ‘ऑल इंडिया रेडियो’ (AIR) बना। लायनल फील्डन को भारत का पहला कंट्रोलर ऑफ ब्रॉडकास्टिंग नियुक्त किया गया, जिनकी दूरदर्शिता और प्रशासनिक क्षमता ने AIR को एक सुदृढ़ संगठन के रूप में स्थापित किया।
‘आकाशवाणी’ शब्द की उत्पत्ति भारतीय संस्कृति और पौराणिक धारणाओं में गहराई से निहित है। संस्कृत में ‘आकाशवाणी’ का शाब्दिक अर्थ है – ‘आकाश से आने वाली वाणी’ या ‘ईश्वरीय संदेश’। रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों में ‘आकाशवाणी’ के माध्यम से दिव्य घोषणाएं होती हैं, जिन्हें सभी पात्र सुन सकते हैं। जब रेडियो के माध्यम से जनता तक ध्वनि संदेश बिना किसी दृश्य के प्रसारित होने लगे, तो यह नाम स्वाभाविक रूप से उपयुक्त प्रतीत हुआ। यह शब्द न केवल तकनीकी व्याख्या में फिट बैठा, बल्कि भारतीय जनमानस के साथ भावनात्मक जुड़ाव भी स्थापित किया।
1935 में मैसूर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एम. वी. गोपालस्वामी ने अपने निजी निवास ‘विट्ठल विहार’ में एक रेडियो स्टेशन की स्थापना की, जिसे उन्होंने ‘आकाशवाणी’ नाम दिया। यह भारत में निजी स्तर पर रेडियो प्रसारण की एक ऐतिहासिक पहल थी, जिसने न केवल शैक्षणिक और सांस्कृतिक उद्देश्यों की पूर्ति की, बल्कि ‘आकाशवाणी’ शब्द को रेडियो प्रसारण की पहचान बना दिया। उनके इस प्रयास ने दक्षिण भारत में रेडियो के प्रसार को बल दिया और सरकार को व्यापक स्तर पर रेडियो सेवा की दिशा में सोचने के लिए प्रेरित किया।
1939 में कोलकाता में शॉर्टवेव सेवा की शुरुआत के अवसर पर रवींद्रनाथ ठाकुर ने एक विशेष कविता की रचना की, जिसमें ‘आकाशवाणी’ शब्द का प्रयोग किया गया। उन्होंने रेडियो को ‘ईश्वरीय ध्वनि’ बताया जो पूरे राष्ट्र में समान रूप से गूंजती है। उनका यह काव्य-संदेश केवल एक साहित्यिक रचना नहीं था, बल्कि उस समय के सांस्कृतिक और तकनीकी मिलन का प्रतीक बन गया। ठाकुर के इस प्रयोग के बाद ‘आकाशवाणी’ शब्द को रेडियो के लिए देशभर में लोकप्रियता मिलने लगी और इसे एक प्रतिष्ठित पहचान मिली।
1956 में पंडित नरेंद्र शर्मा, जो एक महान कवि और गीतकार थे, ने AIR के लिए ‘आकाशवाणी’ नाम का सुझाव दिया। उनका मानना था कि यह नाम भारतीय परंपरा, संस्कृति और भाषा के साथ पूर्णतः मेल खाता है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने इस सुझाव को मान्यता देते हुए ‘आकाशवाणी’ को AIR का आधिकारिक हिंदी नाम घोषित किया। यह निर्णय न केवल भाषाई दृष्टि से महत्वपूर्ण था, बल्कि यह रेडियो को एक भारतीय पहचान देने की दिशा में एक बड़ा कदम था। इसके साथ ही रेडियो एक विदेशी अवधारणा से निकलकर भारतीय सांस्कृतिक अभिव्यक्ति बन गया।
1957 में AIR ने ‘विविध भारती’ सेवा का शुभारंभ किया, जिसने रेडियो प्रसारण को आम जनमानस के और निकट ला दिया। फिल्मों के लोकप्रिय गीत, नाट्य कार्यक्रम, हास्य, भक्ति और ज्ञानवर्धक वार्ताओं ने ‘विविध भारती’ को विशेष बना दिया। उद्घाटन अवसर पर प्रसारित गीत ‘नाच रे मयूरा’ और उद्घोषणा ‘यह आकाशवाणी का पंचरंगी कार्यक्रम है’ ने श्रोताओं में गहरी छाप छोड़ी। विविध भारती ने रेडियो को मनोरंजन का सबसे सुलभ और जनप्रिय माध्यम बना दिया और भारत के कोने-कोने तक अपनी पहुँच बनाई।
1990 में ‘प्रसार भारती अधिनियम’ पारित हुआ, जिसने ‘आकाशवाणी’ और ‘दूरदर्शन’ को एक स्वायत्त सार्वजनिक प्रसारण संस्था के रूप में मान्यता दी। यह अधिनियम 15 नवम्बर 1997 को लागू हुआ, जिससे आकाशवाणी को सरकारी हस्तक्षेप से स्वतंत्रता मिली। यह स्वतंत्रता प्रसारण की गुणवत्ता, सामग्री के चयन और भाषाई विविधता में स्पष्ट रूप से दिखाई दी। आकाशवाणी ने क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों को बढ़ावा देने के साथ-साथ सामाजिक सरोकारों और सांस्कृतिक मूल्यों को उजागर करने का कार्य शुरू किया।
मई 2023 में केंद्र सरकार द्वारा एक आदेश जारी किया गया, जिसमें यह निर्देश दिया गया कि ‘ऑल इंडिया रेडियो’ के स्थान पर अब केवल ‘आकाशवाणी’ शब्द का प्रयोग किया जाए। यह निर्णय ‘प्रसार भारती अधिनियम’ के अनुरूप था और इससे ‘आकाशवाणी’ को उसकी मूल भारतीय पहचान पुनः प्राप्त हुई। यह नामकरण केवल भाषाई परिवर्तन नहीं था, बल्कि यह भारत के सांस्कृतिक आत्मसम्मान और तकनीकी आत्मनिर्भरता का प्रतीक बन गया। यह बदलाव रेडियो को और अधिक स्वदेशी और जनोन्मुखी बना सका।
वर्तमान में, ‘आकाशवाणी’ 470 से अधिक प्रसारण केंद्रों के माध्यम से भारत के कोने-कोने में सुना जा रहा है। यह 23 भाषाओं और 179 बोलियों में कार्यक्रम प्रसारित करता है, जिससे यह भारत के विविधतापूर्ण समाज को एकसूत्र में बांधने का कार्य करता है। इसकी बाह्य सेवा प्रभाग 27 भाषाओं में प्रसारण करता है, जिसमें 16 विदेशी और 11 भारतीय भाषाएं शामिल हैं। यह सेवा न केवल प्रवासी भारतीयों को भारत से जोड़े रखती है, बल्कि भारत की संस्कृति और विचारधारा को वैश्विक मंच पर भी प्रस्तुत करती है।
‘आकाशवाणी’ के कार्यक्रमों ने समय-समय पर देश की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक चेतना को दिशा दी है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इसके समाचार बुलेटिन और विशेष कार्यक्रमों ने लोगों को प्रेरित किया। आपातकाल जैसे संवेदनशील समय में भी रेडियो ने अपनी भूमिका निभाई। ग्रामीण भारत के लिए प्रसारित कृषि, स्वास्थ्य और शिक्षा आधारित कार्यक्रमों ने समाज में परिवर्तन की नींव रखी। ‘युववाणी’, ‘नारी जगत’, ‘देशकाल’, ‘संगीत सभा’ जैसे कार्यक्रम आज भी जनचेतना और राष्ट्रीय एकता के वाहक हैं।
आकाशवाणी ने न केवल सूचना और मनोरंजन के क्षेत्र में अपना स्थान बनाया, बल्कि यह भारत के इतिहास और समाज का जीवंत दस्तावेज बन गया है। भारत की आज़ादी, पंचवर्षीय योजनाएं, चुनावों, युद्धों, प्राकृतिक आपदाओं और विज्ञान उपलब्धियों से लेकर सांस्कृतिक कार्यक्रमों तक – हर युग, हर बदलाव की आवाज आकाशवाणी बनकर देशवासियों तक पहुँची है। यह केवल एक माध्यम नहीं, बल्कि एक भावनात्मक और वैचारिक जुड़ाव है, जिसे भारतीय जनमानस ने अपनाया है।
अंततः, ‘आकाशवाणी’ भारत के संचार इतिहास की एक गौरवशाली गाथा है, जो समय के साथ और भी अधिक प्रासंगिक होती जा रही है। डिजिटल युग में भी, जब पॉडकास्ट, वेब रेडियो और ऑनलाइन स्ट्रीमिंग जैसे विकल्प मौजूद हैं, ‘आकाशवाणी’ अपनी विश्वसनीयता, सांस्कृतिक गहराई और जनविश्वास के कारण आज भी जीवंत और प्रभावशाली बनी हुई है। यह संस्था आने वाले समय में भी देश की आवाज़ बने रहने का सामर्थ्य रखती है और भारत की विविधता, एकता और चेतना को अपनी आवाज़ में समेटे हुए आगे बढ़ती रहेगी।
— डॉ. शैलेश शुक्ला