शरद ऋतु
शरद ऋतु
बर्फ की सिल्लियों सा
नभ में हैं
बादलों का प्रसार
शशि किरणें कर रही हैं
धरा पर शीत की बौछार्
झील में
मिश्री की डली सा
घुल गया हैं
पूनम का चाँद
मचल उठी हैं लहरें
तट से कर रही हैं
वे मनुहार
ओस से भींगी
रेत की सुडौल काया
सजीव हो गयी हैं
चित्ताकर्षक हैं उसका
अनुपम रूप जो
हुआ हैं अभी साकार
खुले गगन के झरोखों से
सकुचाये से
टिमटिमाते तारे भी
रहे हैं इस छटा को निहार
आओं मैं और तुम भी करे
आँखों आँखों से
शरारतों का इज़हार
बह रही हैं
चन्दन की महक लिए
नर्म दुशाले सी
सुखद शीतल बयार
सुध बुध खो चुकी
एक नाव के हाथों में
नहीं हैं पतवार
आगे हैं मंझधार
मोंगरे की पंखुरियों सी
धवल लग रही हैं निशा
चांदनी ने किया हैं श्रृंगार
आज फिर सरस हुआ हैं
शरद ऋतु का शालीन व्यवहार
किशोर कुमार खोरेन्द्र
शरद ऋतु का अच्छा वर्णन किया है.
किशोर भाई , बहुत सुन्दर कविता लिखी है .