मोह
फिर बादलोँ ने
कुछ रुप बदला,
कुछ ऐँसे बिखरे
कि अंबर पर आकृतियां
उभर आयीँ,
ये श्वेत श्यामल मेघ
फिर किसी आकृति को उकेरते
अंबर पर निशा
का स्वागत करने खडे हो गये,
इस बीच शशि कहीँ छिप गिया,
उसकी छद्म किरणेँ धरती को छूती भी नहीँ थीँ,
मेघ बढते जाते थे,
अंबर काला पडता जाता था,
गौर वर्ण की संध्या जब श्यामल होकर निशा हो गयी,
तब यकायक चंद्रमा प्रकटा,
जैसे उसे इस श्यामल निशा का मोह हो,
सत्य ये मोह कभी पीछा नहीँ छोडता।।
___सौरभ कुमार दुबे
अच्छी कविता !