ओस हूँ
जिसकी छत हैं
यह नीला आसमान
वही हैं मेरा मकान
लौट आउंगा फिर
कल्पनाओं के अन्तरिक्ष से
इसके मुंडेर पर
अभी तो भरने दो मुझे उड़ान
यूँ तो मै कुछ भी नहीं
इस घरके विस्तार कों देखता हूँ
तो और भी लगा नहीं पाता हूँ
अपने होने का अनुमान
किसी की नज़र में
पत्थर भी हैं भगवान
किसी की नज़र में
मै बदनाम हूँ
होकर एक इंसान
ओस हूँ
पर ह्रदय में प्रेम का सागर हैं
करुणा की अश्रुपूरित लहरें करती हैं
मन के तट पर हाहाकार
अलग अलग शिविरों मैं
खेमों की अपनी अपनी दुनियाँ में
रहता हैं अहंकार
न मेरा कोई अतीत हैं
न मेरा कोई भविष्य हैं
मै तो हूँ सिर्फ वर्तमान
प्रश्नों के उत्तर
यदि तुम खुद बन सकते हो
तो मेरे साथ चलों
तभी होगा
हम सबका जीना आसान !
आतंक का न कोई धर्म होता है
न कोई ईमान
जताने अपना अस्तित्व
वे बरसाते हैं गोलियाँ
शिकार होते है निरपराध
बच्चे बूढ़े और जवान !!
*किशोर कुमार खोरेन्द्र
umda
बहुत अच्छा लगी .
बेहतर रचना !
aabhar vijay ji
WAAH
shukriya mukesh sinha ji