उपन्यास : देवल देवी (कड़ी १५)
12. धर्म रक्षण हेतु पलायन
”महाराज आप राजकुमारी देवलदेवी को लेकर गुप्त मार्ग से निकलिए, समय बहुत कम है।“ कंचन सिंह बोला।
कर्ण देव ”महारानी कहाँ हैं?“
कंचन सिंह ”मैं उन्हें लेकर दूसरे मार्ग से निकलता हूँ। आप निश्चिंत रहें, हम देवगिरी में मिलेंगे।“
कर्ण देव ”पर वह कहाँ?“
कंचन सिंह ”संभवतः अपने कक्ष में। आप विलंब न कीजिए महाराज, निकलिए।“
कर्ण देव ”ठीक है। आप महारानी को लेकर देवगिरी में पहुचों। मैं देवलदेवी को लेकर जाता हूँ।“ राजा कर्ण देव, देवलदेवी के कक्ष की तरफ और कंचन सिंह महारानी के कक्ष की तरफ भागते हैं।
कंचन सिंह, महारानी के कक्ष में पहुँचकर& ”शीघ्र करो, जितना धन ले सकती हो ले लो। अब हमें निकलना पड़ेगा। मैंने प्रबंध कर रखा है। हम कुछ दूर पर अपने संबंधी के घर छुप जाएँगे। तुर्क सेना के वापस जाने पर लौटकर सिंहासन पर अधिकार कर लेंगे।“
”पर महाराज, वह कहाँ हैं? और राजकुमारी?“
”महाराज और राजकुमारी को मैंने फुसलाकर देवगिरी जाने का परामर्श दे दिया है। आप समझ सकती हैं महारानी यहाँ से देवगिरी तक मार्ग इतना लंबा है, तुर्क सेना सरलता से महाराज को खोज लेगी और…“ कंचन सिंह कुटिल हँसी हँसता है।
उधर देवलदेवी अपने पिता से पूछती है- ”पर पिताजी महाराज, सेनापति इंद्रसेन का क्या हुआ?“
”ये वार्तालाप का समय नहीं है पुत्री शीघ्रता करो तुर्क कभी भी यहाँ पहुँच सकते हैं। तभी धमाका होता है जिसका शोर गूँज उठता है।“
”ये धमाका कैसे महाराज?“
”संभवतः आक्रमणकारियों ने तोप से मुख्य फाटक तोड़ दिया है पुत्री। शीघ्रता कर अब वो किसी भी समय यहाँ पहुँच सकते हैं।“
”पर यह पलायन है।“
राजा कर्ण देव देवलदेवी का हाथ पकड़कर खींच के भागते हुए कहते हैं- ‘धर्म रक्षण हेतु ये पलायन इस समय आवश्यक है।’