हैं वे ..खामोश
पर्वतों के पास नहीं हैं ओंठ
कैसे अभिव्यक्त करे मन की बाते
रहे हैं वे सोच
सदियों से खड़े हैं जंगल में वृक्ष
अपने ही सायों से
घिरे हुए …हैं वे खामोश
नदियों को सागर तक तो जाना ही हैं
पल भर को ठहरे कैसे
आगे जो हैं नए नए अनगिनत मोड़
उसे अपनी ही परछाई नजर नहीं आती
कभी इतना अन्धेरा हैं
कभी निशा सोती हैं
चांदनी के धागों से बुनी हुई चादर को ओढ़
दूर दूर तक फैला हैं नीला समुद्र
लहरे तट तक आकर कुछ कह जाती हैं
पर वह लगता हैं हमें सिर्फ भीषण शोर
जीवन सिर्फ एक मौन उत्तर हैं
बेवज़ह रेत पर लिखे शब्दों में
प्रश्न यहाँ न तू खोज
किशोर कुमार खोरेन्द्र
बहुत अच्छी कविता है जी .