अपनी ही अंजुमन में…
अपनी ही अंजुमन में मैं अंजाना सा लगूं
बिता हुआ इस दुनिया में फ़साना सा लगूं.
गाया है मुझको सबने, सबने भुला दिया
ऐसा ही इक गुजरा हुआ तराना सा लगूं.
अपने ही हमनशीनों ने भुला दिया मुझे
तो कैसे अब मैं गैरों को खजाना सा लगूं.
कई बार डूबा हूँ वहां मंजिल जहां पे थी
आज इक डूबा हुआ किनारा सा लगूं.
एक दिन निकल गया मैं खोज में उनकी
वो तो मिली नहीं, खुद को ही बेगाना सा लगूं.
‘आशू’ की आंसू थम न पाए आज तक
ऐसे गई के बिता हुआ ज़माना सा लगूं.
-अश्वनी कुमार
बहुत सुन्दर ग़ज़ल.
धन्यवाद सर