लो फिर से आ गया बसंत “
विरह की वेदना हुई ज्वलंत
मन को भटकाने
लो फिर से आ गया बसंत
मौसम का राजा कहो
या उसे रसों का महंत
प्रकृति और चेतना को
सरस करने
लो फिर से आ गया बसंत
भूले बिसरे प्रणय के क्षणों का
स्मृति पटल पर वह
नहीं होने देता अंत
उमंग को जगाने
लो फिर से आ गया बसंत
मन ने सोचा था
बन कर रहूँगा संत
अब नहीं दुहराऊंगा
मिलन के प्रयास को
रहूँगा
वियोगी सा जीवनपर्यन्त
तन के
अंग अंग को उकसाने
लो फिर से आ गया बसंत
धरती में
बिखरे हैं टेसू के फूलों के रंग
आसमान उडता सा लगता है
मानों हो वह नीला पतंग
ओस से भींगी धूल लगती
जैसे हो वह चन्दन
मीठे स्वर से गूंज उठा जंगल
जब गाने लगा
कोयल का मधुर कंठ
लो फिर से आ गया बसंत
इस बरस खत आया है
बतलाने आया डाकिया संग
दौड़कर सूना एकाकी पंथ
गढ़ने नए अफ़साने
लो फिर से आ गया बसंत
किशोर कुमार खोरेन्द्र
(ज्वलन्त =चमकदार ,स्पष्ट
महंत =, मुखिया ,प्रमुख )
बहुत खूब .
bahut bahut shukriya