संस्कृतियों का अन्तर
कल्पना कीजिये कि दिल्ली विधानसभा के चुनावों में अगर आआपा की हार हो गयी होती और भाजपा को बहुमत मिल गया होता, तो क्या होता. मेरे विचार से सबसे पहले तो यह होता कि हरिश्चन्द्र के कलयुगी अवतार केजरीवाल वोटिंग मशीनों में गड़बड़ी का आरोप लगाते हुए धरने पर बैठ जाते और सारा राजनैतिक वातावरण गन्दा कर देते.
लेकिन हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी ने उनकी जीत और भाजपा की हार का समाचार पाते ही स्वयं फ़ोन करके केजरीवाल को जीत की बधाई दी और जनता के निर्णय को विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया.
यह है संस्कृतियों का अंतर! मोदी जी ने अपने इस कार्य से न केवल अपनी महानता और विशाल हृदयता का परिचय दिया है, बल्कि भारतीय संस्कृति और लोकतंत्र का भी गौरव बढ़ाया है.
लेकिन इसी लोकतंत्र में अनेक विपरीत उदाहरण भी उपलब्ध हैं. याद कीजिये कि अटल जी के प्रधानमंत्री बनने पर माकपा ने उनको बधाई देने से साफ़ इनकार कर दिया था और प.बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री कामरेड ज्योति बसु कभी अटल जी से मिलने नहीं गए. इस तरह उन्होंने अपनी क्षुद्रता का परिचय दिया था.
बंगाल की वर्तमान मुख्यमंत्री मुमताज़ बानो उर्फ़ ममता बनर्जी ने आज तक मोदी जी को बधाई नहीं दी है और न कभी उनसे मिलने आई हैं. यहाँ तक कि जिन सम्मेलनों में मुख्यमंत्रियों का आना आवश्यक होता है उनमें भी शामिल नहीं होतीं. वे भी कुसंस्कृति का परिचय दे रही हैं.
अन्य कई मुख्यमंत्री भी केंद्र सरकार द्वारा बुलाई गई अहम् बैठकों में भी स्वयं शामिल होने के बजाय नौकरशाहों को भेज देते हैं. इससे राज्य और देश को हानि हो तो उनकी बला से.
राज निति में हार जीत होती ही रहती है लेकिन इस को पर्सनल दुश्मनी बना लेना उचित नहीं है , मोदी जी ने बधाई दी बहुत अच्छा किया और इस हार के कारण भी ढूँढने चाहिए.
लेख की भावना एवं निष्कर्षों से पूर्ण सहमति है। मुझे लगता है कि यदि देशवासियों को कोई राजनैतिक दल अधिक प्रलोभन देता हे तो अधिकांश लोग उसमे फंस जाते हैं। इसी प्रकार से एक बार गरीबी हटाओ के नारे का प्रभाव हुआ था। प्रत्येक राजनैतिक दल इस औषधि का अधिक से अधिक प्रयोग करता है।