कविता : हे नीलकंठ !
हे नीलकंठ,
मेरा कंठ भर आता है तुम्हारी महिमा गाते गाते
मेरे ह्रदय का असीम प्रेम सहसा नयनों से छलक उठता है,
और सहसा अश्रुधार इन अधम अंखियों से निकल पड़ती हैं
गला रुंध जाता है, शब्द नहीं निकलते,
और कविता? कविता तो फूटती ही नहीं मन पत्थर से
शिव शब्द स्वयं में ही कविता है,
और महान इतना कि शब्द इसे बाँध नहीं सकते,
ऐसा अद्भुत असीम अगाध दिव्य महिमामंडन किसी का नहीं,
क्या कहें तुम्हे, नाथों के नाथ जिसके होते कोई अनाथ नहीं,
इस जगति के पिता, परमपिता
जब जब विपत्ति के बादल टूटे तब तब तुम आये
जब जब परिस्थितियाँ बिगड़ी तब तब तुम आये
कभी विष पीते हो, कभी जटाओं में गंगा समाहित कर लेते हो,
प्रेम करते हो तो ऐसा कि कोई भेद नहीं देखते
क्रोध करते हो ऐसा कि तब भी कोई भेद नहीं देखते
अहा!! कैसे महिमामंडन करूँ तुम्हारा,
तुम रावण को भी आशीष देते हो और राम को भी
कृष्ण से भी प्रेम करते हो और युद्ध भी,
हे महायोगी, तुम सबकी अंतरात्माओं में समाहित हो
हम सबके जीवन को महकाने वाले परमात्मा हो
तुम्हे हमारा नमन है, बार बार!!
सभी का आभार जी
सुन्दर. नीलकंठ को शत-शत नमन.
ॐ नम: शिवाय! सबको मन भाय!
बहुत अच्छी कविता .
बहुत खूब ! ॐ नमः शिवाय !!