ग़ज़ल
हुस्न पर तो सभी ने कही है ग़ज़ल।बारहा इश्क़ ही ने कही है ग़ज़ल। दूधिया रोशनी में नहाया बदन,रात भर
Read Moreसत्ता पाने का अहंकार, सत्ता खोने की पीर बड़ी। दोनों ने मिलकर खींची है, रंजिश की एक लकीर बड़ी।। है एक पक्ष जो भारत को अपनी जागीर समझता है। सत्ता को सोने की प्याली में रक्खी खीर समझता
Read Moreदिनोंदिन बदल रहा परिवेश। राममय हुआ समूचा देश।। अयोध्या नगरी की है बात, सुना है हुए पाँच सौ साल। जहाँ
Read Moreमुश्किलों में हैं घिरे तो गुनगुना कर देखिए इन उदासी के पलों में मुस्कुरा कर देखिए आप भी हैं ग़र परेशां नफ़रतों के दौर से, प्यार के कुछ फूल गुलशन में उगाकर देखिए ज़िंदगी में जीत ही मिलती नहीं है हर दफ़ा, हार को भी जीत जैसा ही पचाकर देखिए नेमतें रब की बरसते देखना चाहें अगर, एक भूखे को कभी रोटी खिलाकर देखिए क्या पता कोई मुसाफ़िर ढूँढता हो रास्ता, देहरी पर रोज़ इक दीपक जलाकर देखिए — बृज राज किशोर ‘राहगीर’
Read Moreन्यायपीठ को आधा सच ही दिखता क्यों है? एक जगह की हिंसा पर हो आग-बबूला, कई जगह की मार-काट पर चुप रहते हो। कितनी ही घटनाओं को अनदेखा करके, किसी एक घटना पर कुछ ज़्यादा कहते हो। अगर न्याय के आसन पर हो माननीय तो, कुछ लोगों से भेदभाव का रिश्ता क्यों है? कहीं चुनावों में खुलकर हत्याएँ होती, बड़ी अदालत को कुछ नहीं दिखाई देता। और न ही न्यायालय के बहरे कानों को, बम की आवाज़ों का शोर सुनाई देता। किंतु अचानक सभी इंद्रियाँ जग जाने से, सब कुछ दिखने लगता, सुनने लगता क्यों है? यूँ तो सालों-साल नहीं मिलती तारीख़ें, किंतु किसी के लिए रात में खुले अदालत। इंतज़ार में उम्र गुज़र जाती लोगों की, धनवानों को क्षण-भर में मिल जाती राहत। दुष्टों को परवाह नहीं है क़ानूनों की, आम आदमी ही चक्की में पिसता क्यों है? माननीय ही माननीय का चयन कर रहे,
Read Moreपाँच बजते-बजते दिल्ली की भीड़-भाड़ से निकल आए तो लगा रात के दस बजे तक देहरादून पहुँच ही जाएँगे। दिल्ली-मेरठ
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