हमीद के दोहे
लफ्फाज़ी होती रही , हुई तरक़्क़ी सर्द। समझ नहीं ये पा रहे , सत्ता के हमदर्द। अबलाओं पर ज़ुल्म कर,
Read Moreलफ्फाज़ी होती रही , हुई तरक़्क़ी सर्द। समझ नहीं ये पा रहे , सत्ता के हमदर्द। अबलाओं पर ज़ुल्म कर,
Read Moreआत्म प्रसंशा से नहीं, बनती है पहचान। सब करते तारीफ जब,तब मिलता सम्मान। पुख्ता होती है तभी, रिश्तों की बुनियाद।
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