Author: मंजुल भारद्वाज

कविता

ज़िंदा है सिर्फ़ मौत

आजकल मैं श्मशान में हूँ कब्रिस्तान में हूँ सरकार का मुखिया हत्यारा है सरकार हत्यारी है अपने नागरिकों को मार रही है सरकारी अमला गिद्ध है नोंच रहा है मृत लाशों को देश का मुखिया गुफ़ा में छिपा है भक्त अभी भी कीर्तन कर रहे हैं इस त्रासदी पर देश की सेना पुष्प वर्षा कर रही है बैंड बजा रही है मैं हूँ जलाई और दफनाई लाशें गिन रहा हूँ रोज़ ज़िंदा होने की शर्मिंदगी महसूस कर रहा हूँ क्या क्या गुमान था कोई संविधान था कोई न्याय का मंदिर था एक संसद थी

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