कविता : देह
देह उसकी देह आज चुपचाप पड़ी थी म्रत बिना कम्पन के मार कर अपने मन को जब मुर्दा सी पड़ी
Read Moreदेह उसकी देह आज चुपचाप पड़ी थी म्रत बिना कम्पन के मार कर अपने मन को जब मुर्दा सी पड़ी
Read Moreकितनी पिसती है हर रोज चकला ,बेलन के मध्य स्त्री हाँ स्त्री रोटी सी स्त्री कभी कभी यूँ ही सोचकर
Read Moreमैं मिली नहीं खुद से बरसों हो गए । पहचान लेती हूँ दरवाजे से दाखिल होने वाली हवाओं के चेहरों
Read Moreतूम बुनते रहे स्वप्न मैं जागती रही रात भर तुम निकल पड़े जब मंजिल की ओर मैं राहे तुम्हारी बुहारती
Read Moreमैं कहती थी अम्मा को तनिक बैठ कर सुस्ता लो ना तूम फिरकी सी क्यों फिरती हो तुम क्या कोहलू
Read Moreएक ब्याह से कितने रिश्ते बना लेती है स्त्रीयां उसकी चाची उसकी मामी उसकी भाभी उसकी ताई और ना जाने
Read Moreपीड़ा भी घरबार देखतीं है आंखो का मीठा पानी देखती है सूखे हृदय में नहीं भरती वो अपनी आहों को
Read Moreमाँ मैं जब बहुत छोटी सी थी तभी से मेरी माँ बूढ़ी सी हो रही थी और बीमार भी बहुत
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