कविता

कविता : मैं मिली नहीं खुद से

मैं
मिली नहीं खुद से
बरसों हो गए ।
पहचान लेती हूँ
दरवाजे से
दाखिल होने
वाली हवाओं के
चेहरों की
मंशा  को भी
मैं जानती हूँ घर
की हर दीवार के
मन की बातें
भी
सहला लेती हूँ
उन्हें भी
बतिया लेती हूँ पास
बैठ कर
उनकी सुंदरता को
जब संवार देती हूँ
तब वो मूझे
अपने आगोश में
लेकर मेरा मन
सन्तुष्ट कर देती है
बाहरी ही नहीं
घर के अंदर भी
सराही जाती हूँ
तब खुद से
बरसों तक
नहीं मिल पाने का
दुख
नहीं होता ।
पहचान गुम
होने का दुख
नहीं होता ।