कविता
ग़मों में लिपटी धुंध हूँ , जैसे बिखरे जज़्बात हूँ । रूह की बेआवाज़ चीख़ सा, बेसहर एक रात हूँ
Read Moreशहर के एक आलीशान होटल में सजी महफ़िल , मद्धम मद्धम बज रहीं जगजीत सिंह की ग़ज़लें, हल्की नीली रोशनी
Read Moreग़मों में लिपटी धुंध हूँ , जैसे बिखरे जज़्बात हूँ । रूह की बेआवाज़ चीख़ सा, बेसहर एक रात हूँ
Read Moreहर रोज़ सोना, हर रोज़ जाग जाना दिन दोपहरी सिर्फ़ रोटी को भागना । है पता कि ज़िंदगी में मयस्सर
Read Moreमौसम है अनुरक्त सा, काली घटाएँ छायी हैं । बारिशें शायद यहाँ , फिर से लौट आयी हैं।। मिटा चुका
Read Moreहज़ार रिश्तों में बँधा आदमी भी , हर दिल से जुदा होता है । लाख पिरो ले वो धागे मोह
Read Moreपीले पीले फूल खिले, था चारों ओर बसंत । जैसे पीताम्बर ओढ़, घूम रहा हो संत !! किंतु बरखा और
Read Moreअपनी ज़िंदगी में कुछ दिनों की मियाद जोड़ दी मैंने । आज उनकी ख़ातिर शराब छोड़ दी मैंने । ।
Read Moreएक क़लम जो हरी धूप से , घास चुराया करती थी ! सतरंगी शब्दों को बुनकर, मेघधनुष में ढल जाया
Read Moreवो प्यार जिसे कभी ‘गीत’ कहता था , वो प्यार जिसे आज शब्दों में पिरोता हूँ ! वो प्यार जिसे
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