“कल-कल, छल-छल करती धारा”
जल में-थल में, नीलगगन में, जो कर देता है उजियारा। सबकी आँखों को भाता है, रूप तुम्हारा प्यारा-प्यारा।। कलियाँ चहक
Read Moreजल में-थल में, नीलगगन में, जो कर देता है उजियारा। सबकी आँखों को भाता है, रूप तुम्हारा प्यारा-प्यारा।। कलियाँ चहक
Read Moreखेतों में विष भरा हुआ है, ज़हरीले हैं ताल-तलय्या। दाना-दुनका खाने वाली, कैसे बचे यहाँ गौरय्या? अन्न उगाने के लालच
Read Moreमोम कभी हो जाता है, तो पत्थर भी बन जाता है। दिल तो है मतवाला गिरगिट, “रूप” बदलता जाता है।।
Read Moreबिछा रहा इंसान खुद, पथ में अपने शूल। नूतनता के फेर में, गया पुरातन भूल।। — हंस समझकर स्वयं को,
Read Moreखेतों में बिरुओं पर जब, बालियाँ सुहानी आती हैं। जनमानस के अन्तस में तब, आशाएँ मुस्काती हैं।। सोंधी-सोंधी महक उड़
Read Moreबौरायें हैं सारे तरुवर, पहन सुमन के हार। मोह रहा है सबके मन को बासन्ती शृंगार।। गदराई है डाली-डाली, चारों
Read Moreखिल उठा सारा चमन, दिन आ गये हैं प्यार के। रीझने के खीझने के, प्रीत और मनुहार के।। चहुँओर धरती
Read Moreउड़ते रंग अबीर-गुलाल! खेलते होली मोहनलाल!! कोई गावे मस्त रागनी, कोई ढोल बजावे, मस्ती में भर करके राधा अपना नाच
Read Moreबौराई गेहूँ की काया, फिर से अपने खेत में। सरसों ने पीताम्बर पाया, फिर से अपने खेत में।। हरे-भरे हैं
Read Moreपवन बसन्ती लुप्त हो गई, मौसम ने ली है अँगड़ाई। गेहूँ की बालियाँ सुखाने, पछुआ पश्चिम से है आई।। पर्वत
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