एक आदत सी बन गई है तू…!
हिन्दी ग़ज़ल सम्राट दुष्यंत कुमार लिखतें है – “एक आदत सी बन गई है तू, और आदत कभी नहीं जाती !” प्रत्येक इंसान को कोई न कोई आदत तो होती ही है । कुछ लोग सबकुछ याद रखते हैं और कुछ लोग किसी भी समय भूल जाते हैं। कुछ लोग फ़ालतू बातें भूल जाते हैं तो कुछ उसी में उलझे रहते हैं । यह फ़ालतू क्या होता है? किसी के लिए राग-द्वेष? हाँ, इंसान का स्वभाव है, दूसरों की ग़लतियाँ ही याद रखना। बात अटकती नहीं बल्कि सही समय के इंतज़ार के बाद उससे बदला लेने को लोग उतावले हो जाते हैं । हमें क्या याद रखना है, क्या नहीं ! उस पर कभी आराम से कहाँ सोचते हैं हम !
दुष्यंत कुमार की उस पँक्ति को पढ़कर लगता है कि प्रेमिका के लिए लिखी गई होगी। अगर लिखी है तो भी क्या? हमें हक़ है कि हम कोई भी अर्थ निकाले, चूँकि हम पाठक है । दुष्यंतकुमार ने दिल के दर्द से ज़्यादा ग़रीब व मजबूर इन्सानों के दर्द को परखाऔर महत्त्व दिया है । अपने ग़ज़ल संग्रह “दरख्तों के साये में धूप” (1975 ) देने वाले इस शायर को हिन्दी साहित्य के प्रथम श्रेणी में बिठाए तो ग़लत नहीं होगा । जब यह ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुआ तब तक ग़ज़लों के नाम ज़्यादातर श्रृंगारिक परंपरा ही देखने मिलती थी, मगर उन्होंने इसे तोड़कर ग़ज़ल में आम आदमी की रोज़मर्रा की ज़िंदगी, सामाजिक व राजनीतिक आक्रोश और हृदय की मार्मिक बातों का बख़ूबी ज़िक्र किया है । उनकी ग़ज़ल का यहशेर पढ़िए ;
“सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।“
दुष्यंतकुमार ने ख़ुद जो सहा था, उसी कड़वे ज़हर को अपनी कलम में सच की स्याही बनाकर लिखा है । क्योंकि वे परिवर्तन चाहते थे । कुछ लोग होते हैं, जो कम उम्र जीने के बावजूद बहुत बड़ा जीवन जी लेते हैं। स्वामी विवेकानंद और हमारे प्रथम शहीद मंग़ल पांडे को ही देखिये । सभे क्षेत्रों में महान विभूतियाँ जन्म लेती हैं, जो कम उम्र में बड़ा कार्य करके हमारी नई पीढी के लिएँप्रेरणास्त्रोत बनकर जाती हैं। मैं बात कर रहा था दुष्यंत कुमार की उस काव्य पँक्तियों की, जो कितनी गहरी सोच में डुबो देती हैं हमें… ।
मेरे आँगन में पारिजातक का वृक्ष है । उसके नीचे एक झूला है । गर्मी के दिनों में शाम ख़ुशनुमा होती है यहाँ । ठंडी हवाबहती है। और देववृक्ष पारिजातक के नीचे बैठकर पढ़ना या घर आये दोस्तों के साथ बातें करना, ठहाके लगाना अच्छा लगता है ।
मुझे लगता है कि मेरे लिए यह सब एक आदत सी बन गयी है । झूले पे झूलने की भी आदत है मुझे। गर्मी के दिनों में तड़के जागकर पारिजातक को निहारता रहता हूँ । उसके नीचे रहे झूले पर और आसपास आँगन में गिराकर फैले उसके फूलों को देखता रहता हूँ । उसकी छोटी सी पंखुड़ियों के बीच में केसरी रंग की डंडी कितनी सुहानी लगती है !
मेरे कुछ दोस्त ऐसे भी है, जिन्हें न कभी मिला और न देखा ! फिर भी हमारे बीच अक्सर बातें होती रहती हैं। साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में रहे उन दोस्तों के साथ हँसी-मज़ाक़ और गहरा चिंतन भी होता है । कभी चुटकुले हो तो मज़ा ही कुछ अलग ! हमारे समाज का नजरिया अब भी वहीं का वहीं है। अभी भी शादी के बाद के विजातीय संबंध विवादास्पद रहते हैं, तो सजातीयता का स्वीकार भले हुआ हो मगर यह स्वीकार ही बड़ा छलावा है । अगर पूर्ण स्वीकार हुआ है तो चर्चा ही क्यूं? प्रत्येक सम्बन्ध की गरिमा को संस्कारी लोग जानते और समझते हैं।
बात है आदत की । अपने बच्चों से बात करना, डाँटना, फुसलाना, खाना खिलाना… यह सब ज़िम्मेदारी का हिस्सा है । फिर भी उसकी भी आदत हो जाती है । कौन चाहेगा कि अपने परिवार के साथ रहकर यह सभी आदतें भूलें । सच कहता हूँ, अगर हमें ऐसी आदत अगर नहीं है तो डालनी चाहिए । परिवार और सामाजिक और सर्जनात्मक कार्यों की आदत हमारे जीवन को नए आयाम पर ले जाती है । अपने बच्चों में पढाई के साथ विविध कलाओं के प्रति रूचि बढ़े, यह कोशिश करनी चाहिए । क्यूंकि सभी बच्चे पढाई में अव्वल तो नहीं होते । आमीर ख़ान की फिल्म – तारे ज़मीन पर – उसका बड़ा उदाहरणहै और सफल भी !
कभी कभी हमारी आदतें दूसरों को अनुकूल न हो, ऐसा भी होता है । कई बार ज़ल्दी सोने के बाद आधी रात को जब दुनियावाले सोते हैं तब, मैं अपने कमरे में आपके लिए मज़ेदार बातें लिखने का प्रयास करता रहता हूँ । मेरी क़लम भी अब मेरी आदत बन गई है। सोच सही दिशा में होनी चाहिए, ग़लत सोच के कारण नींद न आये तो जीने में क्या मज़ा? दुष्यंतकुमार का यह शेर पढ़िए;
“अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार,
घर की हर दीवार पर चिपके हैं कितने ईश्तहार ।”
प्रत्येक घर में बातें होती है, विचारों की लड़ाई होती है । कहीं ग़रीबी है तो छोटी सी बातों का बतंगड़ । जहाँ अमीरी है, वह भी कहाँ अलग है? वहाँ दूसरी लड़ाई तो है ही । इन सब के बीच में भी अपने तो अपने ही होतेहैं । अपनों को साथ रखने में महिलाओं की ज़िम्मेदारी और भूमिका बड़ी महत्त्व की होती है। एक अफ़्रीकन कहावत है; “घर में अगर शांति चाहिए तो स्त्री कहें वही करो” हमारे समाज की रंग है। बात सिर्फ़ इतनी है, हमें कौन सा रंग अनुकूल आता है। हमें आदत रखनी होगी परिवार के साथ रहने की। अपनों को चाहने की, बच्चों को और आँगन में रहे पौधों को प्यार देने की । बड़ों को आदर देने की । संयुक्त परिवार ही हमें अच्छे संस्कार और शुद्धता दे सकता है। फिर हमें जो सबसे अधिक प्रिय है उसे कह पाएँगे कि – “एक आदत सी बन गई है तू !”
— पंकज त्रिवेदी
बहुत रोचक लेख !