नव उद्भव
तंगदिलोँ मेँ फिर मैँ कोई आग लगाने आया हूँ,
वो जो हारा बैठा राही है उसे जगाने आया हूँ।
जिसके पथ पर विपदा है,
जिसकी राह पर शूल अनेक,
उसकी मंजिल पर बिखरे है,
नवोत्सव के फूल अनेक।
उन फूलोँ के गुलदस्तोँ को आज सजाने आया हूँ।
तंगदिलोँ मेँ फिर मैँ कोई आग लगाने आया हूँ।।
बैठे जीवन से जो हैँ हारे,
पग पग पर खोज रहे सहारे,
उनके कंधोँ मेँ बोझ बडा जिनको नहीँ मिले किनारे,
मैँ नौका बनकर उनकी नईया पार लगाने आया हूँ।
तंगदिलोँ मेँ फिर मैँ कोई आग लगाने आया हूँ।।
जीवन जिनको झूठा लगता,
हर सपना हो रुठा लगता,
एक अधूरी आस बची हो उसका घट भी फूटा लगता,
उसी घडे को प्यार से भरकर प्यास बुझाने आया हूँ।
तंगदिलोँ मेँ फिर मैँ कोई आग लगाने आया हूँ।।
_____सौरभ कुमार दुबे
अच्छा जागरण गीत !
सौरव जी कविता बहुत अछि लगी .मज़ा आ गिया .