कंक्रीटों के जंगल
इन कंक्रीटों के जंगल में नहीं लगता है मन अपना
जमीं भी हो गगन भी हो ऐसा घर बनाते हैं
ना ही रोशनी आये ना खुशबु ही बिखर पाये
हालात देखकर घर की पक्षी भी लजाते हैं
दीवारेँ ही दीवारें नजर आये घरों में क्यों
पड़ोसी से मिले नजरें तो कैसे मुहँ बनाते हैं
मिलने का चलन यारो ना जाने कब से गुम अब है
टी वी और नेट से ही समय अपना बिताते हैं
ना दिल में ही जगह यारो ना घर में ही जगह यारो
भूले से भी मेहमाँ को नहीं घर में टिकाते हैं
अब सन्नाटे के घेरे में जरुरत भर ही आवाजें
दिल की बात दिल में ही यारो अब दबाते हैं
मदन मोहन सक्सेना
बहुत सुन्दर भाव !