इश्क और अधृत!!!
किसी और के चुम्बन ने तुम्हे जानां
मैं जानता हूँ रुलाया तो बहुत होगा
रो रो कर अपने होंठो से उसके होंठो के
निशाँ को तुमने मिटाया तो बहुत होगा
आइना जब भी देखती होगी तुम जानां
तुम्हारी आँखे भर सी आती होंगी
आईने में खड़े शख्स ने भी फिर
जानां तुम्हे रुलाया तो बहुत होगा
अपने हाथो में किसी और कि अंगूठी देखकर
दिल हर बार बैठ सा जाता होगा तुम्हारा
अपने पीछे घर छोड़ आई जिसे तुम जानां
उस छल्ले ने फिर तुम्हे तरसाया तो बहुत होगा
कितने कि दफे तेरी हथेलियों पे मैंने जानां
तेरे ही कलम से तेरा नाम लिखा था
एक दिन मेहंदी के सुर्ख हाको में तुमने
मेरी नाकामियों को छुपाया तो बहुत होगा
बड़ी सुकून भरी थी सुबहें मेरी सारी
जब तलक पास मेरे तुम मेरे बनके रहे
तेरे बाद तेरे ख्यालों ने कभी हमे सोने न दिया
किसी और ने फिर तुम्हे भी जगाया तो बहुत होगा
अब महज़ हम ही नहीं रहे तेरे तलबगारो में अधृत
खुदा के सजदे में उसने भी वक़्त बिताया तो बहुत होगा
यूँ ही नहीं नवाज़ा खुदा ने तुमसे उसकी अजानों को
दुआओं में उसने अपनी तुमको बसाया तो बहुत होगा
वाह ! वाह !! बहुत खूब !!! सुंदर ग़ज़ल.
शुक्रिया सर…