उपन्यास : शान्तिदूत (चौथी कड़ी)
सम्राट पांडु के बारे में सोचते हुए श्री कृष्ण उदास हो गये। नियति का कैसा क्रूर खेल था कि कुरुवंश के सर्वगुण सम्पन्न राजकुमार और सम्राट होने पर भी वे एक साधारण-सी भूल के कारण दुर्भाग्य से घिर गये, जिसके कारण उनका वंश सर्वनाश के निकट पहुँच गया। वन में आखेट करते समय उन्होंने एक मैथुनरत ऋषि युगल को हिरनों के धोखे में तीर से मार दिया, जिससे उन्होंने पांडु को कभी मैथुन न कर पाने का शाप दिया था। उसी शाप के भय से वे पिता नहीं बन सकते थे। कृष्ण ने सोचा कि शाप की बात शायद सत्य हो अथवा यह भी हो सकता है कि किसी आन्तरिक रोग के कारण मैथुन करने में उनके प्राणों का भय हो, जिसके कारण वैद्यों ने उनको रोकने के लिए ऐसा निर्देश दिया हो।
परन्तु हस्तिनापुर को उनके बाद भी उत्तराधिकारी चाहिए था, अतः उन्होंने उसी नियोग प्रथा को अपनाने का निश्चय किया, जिसके कारण वे स्वयं भी उत्पन्न हुए थे। यह बात पांडु को अवश्य ज्ञात रही होगी। उनके कहने से कुंती और माद्री तुरन्त तैयार हो गयीं। कौन महिला माता नहीं बनना चाहती? मां बनना प्रत्येक नारी का सबसे अधिक गौरवपूर्ण क्षण होता है। अतः पांडु की सहमति से कुंती ने एक देव पुरुष धर्मराज के साथ नियोग किया, जिससे युधिष्ठिर उत्पन्न हुए।
जिस समय पांडु के पुत्र उत्पन्न होने का समाचार हस्तिनापुर पहुंचा, उस समय गांधारी गर्भवती थीं और कुछ ही दिन पश्चात् अपने शिशु को जन्म देने वाली थीं। लेकिन कुंती का पुत्र पहले उत्पन्न होने का समाचार सुनते ही वे ईर्ष्या से भर उठीं और हताशा में उन्होंने अपने उदर पर ही प्रहार कर दिया, जिससे उनका गर्भ गिर गया। सौभाग्य से उस समय भगवान वेदव्यास निकट ही थे, अतः उनको बुलाया गया। उन्होंने कुछ ऐसी वैज्ञानिक क्रियायें कीं कि उस गर्भ से 100 गर्भ बन गये और अपने-अपने समय पर उनमें से 100 पुत्र उत्पन्न हुए। इतना ही नहीं बाद में एक पुत्री भी उत्पन्न हुई।
कुंती ने युधिष्ठिर के बाद भी दो अन्य देव पुरुषों वायु और इन्द्र के साथ नियोग करके दो अन्य बलशाली पुत्र भीम और अर्जुन प्राप्त किये और फिर माद्री को भी नियोग द्वारा अश्विनी कुमारों से दो जुड़वाँ पुत्र नकुल और सहदेव प्राप्त हुए। इस प्रकार पांच श्रेष्ठ पुत्रों के पिता बनकर पांडु स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करते थे। उनके शिशुओं का लालन-पालन वन में रहने वाले ऋषि-मुनि कुमारों की तरह हो रहा था, जिससे सभी प्रसन्न और संतुष्ट थे। पांडु अब हस्तिनापुर लौटने के बारे में सोचने लगे थे। शीघ्र ही वे वन-विहार समाप्त करके हस्तिनापुर जाने वाले थे।
परन्तु नियति को यह स्वीकार नहीं था। एक बार माद्री को झरने में नहाता देखकर पांडु अपनी कामभावना पर नियंत्रण न रख सके। शाप की बात वे भूल गये थे। अत: जैसे ही वे मैथुन में प्रवृत्त हुए, वैसे ही उनके हृदय को बड़ा आघात लगा और वे चिरनिद्रा में सो गये। उनकी मृत्यु के लिए स्वयं को दोषी मानकर माद्री उनके साथ ही चिता पर जलकर मर गयीं। वे अपने पुत्रों को कुंती की देखभाल में छोड़ गयी थीं।
पांडु की मृत्यु का समाचार हस्तिनापुर में एक वज्रपात की तरह पहुँचा। भीष्म ने तत्काल विदुर को वन में भेजा, ताकि वे सभी राजकुमारों और महारानी कुंती को सुरक्षित हस्तिनापुर ले आयें। हस्तिनापुर में आने के बाद भीष्म को सभी राजकुमारों की शिक्षा की चिन्ता हुई, तो उन्होेंने कृपाचार्य को उनकी शिक्षा के लिए नियुक्त कर दिया। कृपाचार्य के आश्रम में पांचों पांडुकुमारों और धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों की शिक्षा-दीक्षा होने लगी।
स्वयं कृष्ण उन दिनों गोकुल और वृन्दावन में अपने गोप-गोपियों के साथ गायें चराने और मल्ल-युद्ध का अभ्यास करने में मस्त रहते थे। उनको तो यह भी ज्ञात नहीं था कि वे वसुदेव और देवकी के पुत्र हैं, नन्द और यशोदा के नहीं। यह रहस्य गोकुल में नन्द के अतिरिक्त किसी को भी ज्ञात नहीं था। मथुरा के राजा कंस के भय से इस रहस्य को प्रयत्नपूर्वक छिपाकर रखा गया था। परन्तु जब कृष्ण और बलराम के मल्लयुद्ध में प्रवीण होने की ख्याति बढ़ने लगी, तो कंस को संदेह हो गया कि ये दोनों भाई भविष्य में उसके सिंहासन के लिए चुनौती बन सकते हैं। इसलिए उसने मल्लविद्या प्रतियोगिता के बहाने दोनों को बुला भेजा।
कृष्ण को लेने के लिए कंस के एक दरबारी अक्रूर गोकुल गये। तभी अक्रूर की सहमति से स्वयं नन्द ने यह रहस्य कृष्ण को बताया कि वे वास्तव में वसुदेव और देवकी के पुत्र हैं, जो कंस के कारागार में पड़े हुए हैं। उन्होंने कृष्ण को इसके लिए भी प्रेरित किया कि मथुरा जाकर उन्हें कंस को समाप्त करना है और अपने माता-पिता के साथ ही सम्पूर्ण मथुरा को कंस के आतंक से मुक्त कराना है।
कृष्ण ने किस प्रकार मथुरा जाकर अपने प्राण बचाते हुए कंस का वध किया और अपने माता-पिता को कारागार से मुक्त कराया वह एक अलग कहानी है। इसके कुछ समय पश्चात ही यादवों को मगध नरेश जरासंध के भय से मथुरा छोड़ना पड़ा था और पश्चिमी तट पर बहुत दूर द्वारिका में जाकर रहने को बाध्य होना पड़ा था।
सोचते-सोचते कृष्ण आगे की घटनाओं पर विचार करने लगे। द्वारिका में ही पहली बार कृष्ण को पता चला था कि महारानी कुंती उनकी बुआ हैं, युधिष्ठिर और भीम उनके बड़े भाई हैं और अर्जुन, नकुल और सहदेव उनके छोटे भाई हैं। वे उन सबसे मिलने के लिए लालायित हो उठे, परन्तु उसका अवसर नहीं मिला। मिलने का अवसर आने से पूर्व ही वारणावत में माता कुंती सहित पांडवों के जलकर मर जाने का समाचार द्वारिका पहुंचा, तो सभी को बहुत दुःख हुआ।
शोक प्रकट करने के लिए पिता वसुदेव और बड़े भ्राता बलराम के साथ कृष्ण भी हस्तिनापुर गये। वहीं पहली बार उन्होंने पितामह भीष्म, मातामही सत्यवती, भगवान वेदव्यास, महाराज धृतराष्ट्र, महारानी गांधारी, महामंत्री विदुर और उनकी स्नेहमयी पत्नी के दर्शन किये थे। साथ ही वे दुर्योधन और उसके भाइयों, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, द्रोण के पुत्र अश्वत्थामा, गांधारराज शकुनि और अंगराज कर्ण से भी मिले। शकुनि की बातों और हाव-भाव से कृष्ण को संदेह हुआ कि वारणावत में लगी आग स्वाभाविक नहीं थी, बल्कि उसके पीछे कोई गहरा षड्यंत्र था।
कृष्ण को विदुर बहुत नीतिवान और विश्वसनीय लगे। उन्होंने एकान्त में विदुर के सामने अपना सन्देह प्रकट किया। विदुर ने कृष्ण की बहुत प्रशंसा सुनी थी। उनसे मिलकर उन्होंने सोचा होगा कि पांडवों का यदि कोई सच्चा हितैषी हो सकता है, तो वे कृष्ण ही हो सकते हैं। इसलिए उन्होंने कृष्ण को यह बताना उचित समझा कि पांडव अपनी माता सहित इस षड्यंत्र से सकुशल निकल गये हैं और कुछ समय के लिए राक्षसों के क्षेत्र में छिपकर रह रहे हैं। भगवान वेदव्यास अपने सूत्रों से उनके सम्पर्क में हैं और उचित समय आने पर उनको प्रकट किया जाएगा, क्योंकि इस समय प्रकट होने पर उनकी हत्या कर दिये जाने की पूरी संभावना है।
यह सत्य जानकर कृष्ण को बहुत सन्तोष हुआ। वे भी पांडवों के प्रकट होने के लिए उचित समय की प्रतीक्षा करने लगे।
(जारी…)