उपन्यास अंश

उपन्यास : शान्तिदूत (आठवीं कड़ी)

कृष्ण का ध्यान अभी भी वारणावत के षड्यंत्र पर घूम रहा था।

कितना गहरा षड्यंत्र था यह। सबसे पहला प्रश्न तो यह उठता है कि ऐसा षड्यंत्र रचने की आवश्यकता ही क्यों हुई? पांडवों को समाप्त करने से कौरवों का क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता था? क्या राज्य को निष्कंटक बनाना? इसका अर्थ तो यह हुआ कि वे भी यह मानते थे कि राज्य के वास्तविक अधिकारी पांडव ही हैं और यदि वे जीवित रहते, तो राज्य उनके ही नियंत्रण में रहता। वास्तविकता भी यही थी। धृतराष्ट्र को प्रारम्भ से ही राज सिंहासन का अधिकारी नहीं माना गया था और केवल पांडु ही उसके अधिकारी थे। उनके बाद स्वाभाविक रूप से उनके ज्येष्ठ पुत्र युधिष्ठिर ही राज्य के वास्तविक उत्तराधिकारी थे। इस बात को सभी मानते थे, क्योंकि युधिष्ठिर को ही युवराज पद पर अभिषिक्त किया गया था। इसलिए षड्यंत्रकारियों ने केवल युधिष्ठिर को ही नहीं उनके सभी भाइयों और माता को भी सिंहासन के मार्ग से हटा देेने का निश्चय किया होगा। इसलिए यह विकट षड्यंत्र रचा गया होगा।

षड्यंत्रकारियों को यह षड्यंत्र रचने का साहस कैसे हुआ? क्या उनको इस बात का विश्वास था कि इसका भेद कभी नहीं खुलेगा? क्या उनको इस बात का भी विश्वास था कि यदि कभी भेद खुल भी गया, तो कोई उनको दंडित नहीं कर सकेगा? क्या उनको राजा धृतराष्ट्र ही नहीं. पितामह भीष्म का भी कोई डर नहीं था? धृतराष्ट्र तो अंधे हैं और पुत्र-मोह ने उनको भीतर तक अंधा कर दिया है। उनके बारे में यह सोचा भी नहीं जा सकता कि वे अपने ज्येष्ठ पुत्रों को उनके किसी दुष्कृत्य के लिए दंडित करने का कार्य करेंगे। लेकिन भीष्म? जिनके नाम से पूरे आर्यावर्त के राजा कांपते हैं, क्या वे ही पितामह भीष्म हस्तिनापुर में अपने परिवार में इतने असहाय हो जाते हैं कि वे किसी षड्यंत्रकारी को दंडित भी नहीं कर सकते? उन्होंने राज्य की रक्षा करने का संकल्प लिया हुआ है या कौरवों के अपराधों का संरक्षण करने का भी निश्चय किया हुआ है?

इन जटिल प्रश्नों का कृष्ण के पास कोई संभावित उत्तर नहीं था। उन्होंने सोचा था कि आने वाला समय ही इनका उत्तर देगा। अब जब पांडव जीवित हस्तिनापुर लौट रहे हैं, तो वारणावत् के षड्यंत्र का भेद खुलेगा ही। तब देखना है कि धृतराष्ट्र और भीष्म क्या करते हैं और कुछ करते भी हैं कि नहीं? इसी से पता चलेगा कि वे पांडवों के कितने हितैषी हैं।

अब कृष्ण का ध्यान इस बात पर केन्द्रित हुआ कि वारणावत का षड्यंत्र रचने वाले कौन थे? निश्चय ही दुर्योधन इसकी प्रमुख कड़ी रहा होगा, क्योंकि उसकी सहमति के बिना ऐसा षड्यंत्र नहीं रचा जा सकता था। इसका अर्थ है कि सत्ता की चाह ने उसके मस्तिष्क को इतना प्रदूषित कर दिया है कि इसके लिए षड्यंत्रपूर्वक अपने सगे सम्बंधियों के प्राण ले लेने में भी उसे कोई संकोच नहीं होता। कृष्ण ने सोचा कि उसकी यह मानसिकता ही किसी दिन कौरवों का सर्वनाश करायेगी। उन्होंने सुना था कि जब दुर्योधन का जन्म हुआ था, तो बहुत भयंकर अपशकुन हुए थे, जिनको देखकर महात्मा विदुर ने कहा था कि यह शिशु सम्पूर्ण कुरुवंश के विनाश का कारण बनेगा। इसलिए उन्होंने धृतराष्ट्र को सलाह दी थी कि इसको अभी त्याग दो। परन्तु धृतराष्ट्र और गांधारी ने उनकी इस सलाह को तत्काल ठुकरा दिया था। अब विदुर की आशंका सही उतरने के लक्षण दिखाई पड़ने लगे हैं। वारणावत के महल में लगी आग भले ही तात्कालिक रूप से बुझ गयी हो, लेकिन अन्ततः वह सम्पूर्ण कुरुवंश को भस्म करके ही शान्त होगी।

इस षड्यंत्र का मूल विचार किसका था? कृष्ण ने सोचा कि निश्चय ही यह विचार शकुनि ने दिया होगा। गांधार का यह राजा अपनी बहिन के साथ युवावस्था में ही हस्तिनापुर में आ गया था और तब से वहीं है। उसका घोषित उद्देश्य अपनी बहिन की सहायता करना है, लेकिन उसका वास्तविक उद्देश्य क्या है यह किसी को पता नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि वे कुरुवंश को भीतर से खोखला कर रहे हों और उसको नष्ट कराना चाहते हों। पूरी तरह संभव है कि वे कुरुवंश के नष्ट होने में ही अपनी बहिन के तथाकथित अपमान का बदला पूर्ण होना मानते हों और वैसा ही प्रयत्न कर रहे हों।

महात्मा विदुर ने ऐसी संभावना प्रकट की थी और उन्होंने धृतराष्ट्र को भी शकुनि को वापस भेजने की सलाह दी थी। परन्तु धृतराष्ट्र व्यक्तिगत विषयों पर विदुर की सलाह को नहीं मानते। जब से उन्होंने दुर्योधन को त्यागने की बात कही थी, तभी से धृतराष्ट्र यह समझते हैं कि विदुर सदा पांडु पुत्रों का साथ दिया करते हैं और मेरे पुत्रों का विरोध करते हैं। इसलिए विदुर की श्रेष्ठ और हितकारी सलाह को भी वे संदेह से देखते हैं। कृष्ण जानते थे कि पितामह भीष्म को भी शकुनि का निरन्तर हस्तिनापुर में ही बने रहना अच्छा नहीं लगता, परन्तु उनमें राजा धृतराष्ट्र से यह कहने का साहस नहीं है कि इसको यहां से निकाल दो या गांधार लौटा दो। धृतराष्ट्र उसी शकुनि को अपना सबसे बड़ा हितैषी मानते हैं और उसकी चिकनी-चुपड़ी बातों के जाल में फंस जाते हैं।

कृष्ण ने सोचा कि शकुनि का दुर्योधन और उसके भाइयों पर गहरा प्रभाव है। वास्तव में दुर्योधन की मानसिकता का निर्माण शकुनि ने ही किया है। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि दुर्योधन शकुनि को ही अपना सबसे बड़ा हितैषी और सलाहकार मानता है। इसी का लाभ उठाकर शकुनि दुर्योधन और उसके भाइयों को पांडवों के प्रति घृणा की सीमा तक विद्वेष से भर रहा है और यह पूरी तरह सम्भव है कि पांडवों को जीवित जलाकर मार डालने का षड्यंत्र शकुनि के मस्तिष्क में ही अंकुरित हुआ हो। कृष्ण ने सुना था कि बचपन में भी दुर्योधन और उसके भाई दुःशासन ने भीम को विषमिश्रित खाद्य खिला दिया था और उसे उठाकर तालाब में फेंक दिया था, परन्तु भीम किसी तरह बाहर निकल आये थे। वारणावत में पांडवों से एक बार में ही सदा के लिए छुटकारा पा जाने के विचार ने अवश्य ही उसको आकर्षित किया होगा और वह शकुनि के षड्यंत्र को साकार करने में जुट गया होगा।

कृष्ण विचार कर रहे थे कि इस षड्यंत्र में और कौन-कौन सम्मिलित हो सकता है? वैसे सारा षड्यंत्र शकुनि ने रचा होगा और उसको साकार उनके एक कर्मचारी विरोचन ने किया होगा। अधिक व्यक्तियों को इसमें सम्मिलित करने की आवश्यकता ही नहीं थी, क्योंकि उनकी कोई भूमिका नहीं थी। फिर भी कुछ अत्यन्त निकटस्थ व्यक्तियों को इसकी सूचना होना अवश्यंभावी है। दुःशासन अपने बड़े भाई की छाया मात्र है, इसलिए इसमें उसका सम्मिलित होना लगभग निश्चित है। क्या अंगराज कर्ण भी इसमें सम्मिलित था? कृष्ण ने सुना था कि इन चारों का परस्पर मिलन लगभग नित्य ही होता था। अतः यह तो सम्भव नहीं है कि कर्ण इतने बड़े षड्यंत्र से अनभिज्ञ रहा हो अथवा उसको जानबूझकर अलग रखा गया हो।

(जारी …)

— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]