कविता

नारी नापे त्रिभुवन

किस्सा सुना सबने
विष्णु बने बामन
नापे तीन डग में त्रिलोक
नारी ने की अनुसरण
स्नेह बेटी रूप में
साहस पत्नी रूप में
संवेदना बहू रूप में
स्नेह ,साहस और संवेदना
पा माँ रूप में ,
नारी नापे त्रिभुवन
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बनना नहीं किसी की देवी
बनना नहीं किसी की दासी
भुलाना नहीं तुम जगतजननी रूपा
भुलाना नहीं अपने जज्बातों को
निभाना अपने चुने रिश्तों को
निभाना अपने मिले दायित्वों को
डरना नहीं दहलीज़ पार की तो
डरना नहीं मंजिल नहीं दिख रही तो
थामना अपने हौसले के पंख को
थामना मदद मांगने वाले हांथो को
दहाड़ना दिखे कामुक आँख तो
दहाड़ना रोके कोई राह तो
पकड़ना अपने ऊपर उठे हाँथ को
पकड़ना कलम बेलन तलवार को
जूझना जो झंझावत आये तो
जूझना दक्षता का अवसर आये तो
सीखना नए युग के चलन को
सीखना पुराने युग के अनुभव को
गुर्राना हक़ है तुम्हारा तो
गुर्राना सही अवसर हो तो …….

विभा

*विभा रानी श्रीवास्तव

"शिव का शिवत्व विष को धारण करने में है" शिव हूँ या नहीं हूँ लेकिन माँ हूँ

One thought on “नारी नापे त्रिभुवन

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता ! नारी है सदा नर पर भारी !

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