ब्लॉग : शीघ्र न्याय के लिए
यह एक मानी हुई बात है कि न्याय में देरी करना न्याय को नकारना है. (Justice delayed is justice denied.) भारत की न्यायपालिका न्याय में देरी करने के लिए कुख्यात है. जिन मामलों का निर्णय शीघ्र किया जा सकता है, उनमें भी अनावश्यक देरी की जाती है. बहुत से मामलों में बाबा को मिल सकने वाला न्याय पोते को भी नहीं मिलता. इससे हमारी न्याय-प्रणाली के खोखलेपन का पता चलता है. न्यायालयों में लटके हुए करोड़ों मामले इसका प्रमाण हैं.
किसी भी विवाद में तीन पक्ष होते हैं- १. वादी, २. प्रतिवादी, और ३. न्यायाधीश. वादी जहाँ शीघ्र न्याय चाहता है, वहीँ प्रतिवादी उसको लटकाना चाहता है. कभी-कभी इसका उल्टा भी होता है. मामले को लटकाना चाहने वाले विभिन्न बहानों से तारीख पर तारीख लेते जाते हैं और मामला चलता रहता है. इसकी मुख्य जिम्मेदारी न्यायाधीश की है, जो वकीलों के बहानों को सही मान लेते हैं और महीनों बाद की तारीख दे देते हैं.
ऊपर के चित्र में एक सज्जन हैं श्री गुलशन पाहूजा, जो दिल्ली में पारिवारिक न्यायालय के सामने नित्य शीघ्र और समयबद्ध न्याय की मांग के लिए खड़े रहते हैं. उनका कहना है कि न्याय ६ माह या १ साल की समय सीमा में कर दिया जाना चाहिए.
उनका अभियान प्रशंसनीय है. लेकिन ऐसी समय सीमा तय करना व्यावहारिक नहीं होगा, क्योंकि कोई अमला छोटा होता है, कोई बड़ा होता है. सबका निर्णय एक समान समय सीमा में देना संभव नहीं है. इसलिए इसका कोई दूसरा उपाय करना होगा.
मेरे विचार से मामले प्रायः वकीलों के स्वार्थ के कारण देरी से निर्णीत होते हैं, जो तारीख पर तारीख लेते जाते हैं और मुवक्किलों का धन तथा समय दोनों बर्बाद होते हैं. जल्दी न्याय के लिए यह आवश्यक है कि इस प्रकार मुक़दमे टालने की प्रवृति पर रोक लगे. इसलिए दोनों पक्षों के लिए तारीख लेने की अधिकतम संख्या तय कर दी जानी चाहिए. यह संख्या तीन हो सकती है. इसका अर्थ है कि दोनों पक्ष अधिकतम तीन बार तारीख या टाइम आउट ले सकते हैं. यदि इतने समय में कोई पक्ष पूरे सबूत प्रस्तुत करने में असफल रहता है, तो उपलब्ध सबूतों के अनुसार ही मामले पर निर्णय दे देना चाहिए.
वैसे न्यायाधीश को यह अधिकार रहेगा कि वह अपनी सुविधा के कारण या तो मामले की सुनवाई दैनिक आधार पर करे या उसके लिए निकटतम उपलब्ध तिथि और समय तय कर दे. अगर इस सुझाव के अनुसार कार्य किया जाता है, तो मुकदमों का निर्णय यथाशीघ्र होगा यह निश्चित है. यदि न्यायाधीश महोदय कोई बाद की तारीख अपने विवेक से तय करते हैं, तो उनको उसका उचित कारण बताना चाहिए.
भारत में प्राचीन काल से ही न्याय-पंचायत स्तर से ही शीघ्र न्याय की सुविधा मिलती रही है. उसमें बिना खर्चे के ही जो न्याय होना होता है, हो जाता है। यदि कोई उससे संतुष्ट नहीं होता तो ऊपर के न्यायालयों में जा सकता है. वर्तमान में न्याय-पंचायत भी ‘पंच परमेश्वर’ की अवधारणा से बहुत दूर चली गयी हैं और न्यायालयों का हाल आप ऊपर पढ़ ही चुके हैं. इस सारे तंत्र में मौलिक सुधार करना अनिवार्य है, वर्ना शीघ्र न्याय सपना ही बना रहेगा.
इस विषय पर आप सबके विचार आमंत्रित हैं.
आपकी बातों से सहमत हूँ
समय सीमा तय करना चाहिए सर्कार को . और जज को इसके लिए जिम्मेदार भी ठहराया जाना चाहिए
आपका कहना सही है, सुरेन्द्र जी, जज भी न्याय में देरी के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार हैं.
जज ही अपने रिस्तेदार जो हार रहा का निर्णय4साल से रुकवा रहा है.क्या करे
ऐसे भी जज हैं करनाणी जी. यही तो असली बीमारी है. जज को सुनवाई पूरी होने के एक सप्ताह के अन्दर निर्णय दे देना चाहिए. नहीं तो कारण बताओ.
जल्दी न्याय के लिए आपके सुझाव अच्छे हैं. तारीखों की सीमा तय हो जाने पर न्याय जल्दी मिलेगा.
धन्यवाद, जगदीश जी.