कविता

कुछ मुक्तक

1.

परिंदों को चिढाने की, किसी को आजमाने की।
नहीं ख्वाहिश रही अपनी जमीं से दूर जाने की।
इधर पर चाँद लगने है लगा हमको बड़ा प्यारा,
इसी खातिर जगी है चाह नभ को आज पाने की॥

 

2.

पथपर अपलक ताकते, व्याकुलता से नैन।
पता नहीं कब दिन ढले, कब घिर आए रैन।
पहुँच रहे गंतव्य तक, सकुशल मेरे भाव,
आ जाती इक पावती, तो हो जाता चैन॥

 

3.

बेबसी ने दे दिया कोना कोई गुमनाम है।
कुछ पता चलता नहीं कब सुबह औ’ कब शाम है।
क्यों गिला-शिकवा जमाने से करें हम बेवजह,
टूटे शीशे का यही होता रहा अंजाम है॥

 

4.

करें क्यों वक्त जाया जख्म इस दिल के दिखाने में।
यहाँ हर साँस ही दमखम लगाती है सताने में।
मिलोगे तुम नहीं ये सोचकर क्यों खर्च दें आँसू,
बहुत कुछ है न जो हमको मिला जालिम जमाने में॥

 

5.

अपने ही बोझों से दबकर टूट-टूट ढह जाने की।
खेल-खेल में अश्कों के दरिया में ही बह जाने की।
तुम ठुकरा के चले गये राहों का पत्थर जान हमें,
अरे पड़ चुकी आदत है अब तो ये सब सह जाने की॥

*कुमार गौरव अजीतेन्दु

शिक्षा - स्नातक, कार्यक्षेत्र - स्वतंत्र लेखन, साहित्य लिखने-पढने में रुचि, एक एकल हाइकु संकलन "मुक्त उड़ान", चार संयुक्त कविता संकलन "पावनी, त्रिसुगंधि, काव्यशाला व काव्यसुगंध" तथा एक संयुक्त लघुकथा संकलन "सृजन सागर" प्रकाशित, इसके अलावा नियमित रूप से विभिन्न प्रिंट और अंतरजाल पत्र-पत्रिकाओंपर रचनाओं का प्रकाशन

2 thoughts on “कुछ मुक्तक

  • धनंजय सिंह

    आपके मुक्तक अच्छे है.

  • विजय कुमार सिंघल

    सुंदर मुक्तक ! बहुत खूब !!

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