उपन्यास : शान्तिदूत (दसवीं कड़ी)
अब कृष्ण द्रोपदी के साथ पांडवों के लौटकर हस्तिनापुर आने के बाद की घटनाओं पर विचार करने लगे।
कृष्ण को पता चला था कि हस्तिनापुर में पांडुपुत्रों को देखकर पितामह भीष्म और विदुर तो बहुत प्रसन्न हुए थे, परन्तु धृतराष्ट्र और गांधारी ने दिखावे के लिए ही प्रसन्नता व्यक्त की थी। दुर्योधन और उनकी षड्यंत्रकारी मंडली तो उनकी सूरत से ही घृणा करती थी, इसलिए उनके द्वारा स्वागत किये जाने का प्रश्न ही नहीं था। उन्होंने पांडवों के लिए अपने राज्य की सीमा पर रथ भेजने की सौजन्यता भी नहीं दिखायी थी। इसलिए सभी पांडवों को पदयात्रा करके ही हस्तिनापुर आना पड़ा था। केवल द्रोपदी और कुंती को विदुर के रथ में बैठाकर लाया गया था।
दुर्योधन और शकुनि की हताशा का कारण जानना कठिन नहीं था। अत्यन्त सोच-विचार के बाद बनाया गया उनका षड्यंत्र पूरी तरह विफल हो गया था और अब तो पांडव पांचाल जैसे शक्तिशाली राज्य के जामाता बनकर पहले से बहुत अधिक शक्तिशाली हो गये थे। उनको शक हुआ कि कहीं विरोचन तो पांडवों से मिला हुआ नहीं था। परन्तु यदि ऐसा होता, तो वह स्वयं क्यों जलकर मर जाता? निश्चय ही पांडवों को किसी अन्य विधि से उनके षड्यंत्र का पता चला होगा। यह भी हो सकता है कि वहां जाते ही उन्होंने भवन की बनावट देखकर षड्यंत्र का अनुमान लगा लिया हो और चुपचाप आग लगाकर निकलकर भाग गये हों। दुर्योधन इसकी जांच भी नहीं करा सकता था, अन्यथा उसका षड्यंत्र प्रकट हो जाता।
कृष्ण को लगता था कि हस्तिनापुर में द्रोपदी के कुलवधू बनकर आने से पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य की स्थिति सबसे अधिक विचित्र हो जाएगी, क्योंकि द्रोपदी के पिता महाराजा द्रुपद पहले द्रोणाचार्य के सहपाठी और मित्र थे, जो बाद में दोनों अपने-अपने अहंकार के कारण परस्पर शत्रु बन गये थे। द्रोणाचार्य अपने शत्रु की पुत्री को कुलवधू के रूप में देखकर कैसा व्यवहार या प्रतिक्रिया करेंगे इस बात का कृष्ण को कोई अनुमान नहीं था। लेकिन सौभाग्य से द्रोणाचार्य ने कोई अस्वाभाविक प्रतिक्रिया नहीं दी। जब द्रोपदी ने कुलगुरु मानकर उनके चरण स्पर्श किये, तो उन्होंने उसके पिता के प्रति समस्त कटुता भुलाकर द्रोपदी को बहुत आशीर्वाद दिये। वैसे भी पांडव उनके प्रिय शिष्य थे, जिनमें अर्जुन सबसे अधिक प्रिय था। इसलिए उनकी पत्नी के प्रति उनका व्यवहार अच्छा रहना ही था।
कृष्ण ने सोचा कि इस समय पितामह भीष्म को चाहिए था कि वे वारणावत के षड्यंत्र का पूरा पता लगाते और उसके दोषी दुर्योधन आदि को दंडित करते। इससे पहले भी जब दुर्योधन और दुःशासन ने भीम को विष देकर तालाब में फेंक दिया था, तब भी भीष्म ने उनको कोई दंड नहीं दिया था। यदि तभी उनको दंडित कर दिया जाता, तो उनका साहस फिर कभी षड्यंत्र रचने का नहीं होता। लेकिन भीष्म अपने इस अनिवार्य दायित्व से चूक गये। अब यह दूसरा अवसर था, जब उनको अपराधी का पता लगाकर दंड देना चाहिए था। किसी की हत्या का षड्यंत्र रचना साधारण अपराध नहीं होता, बल्कि उसके अपराधी को मृत्युदंड तक दिया जाता है। परन्तु भीष्म ने इस पर कोई विचार नहीं किया। वे इतना भी नहीं कर सके कि षड्यंत्र में भाग लेने के अपराध में शकुनि को हस्तिनापुर से निष्कासित करके बाहर कर देते। कदाचित् उन्होंने तो वारणावत की आग का समाचार मिलने पर राहत की सांस ही ली होगी कि अब पांडव नहीं रहे, तो परिवार का झगड़ा समाप्त हो गया। कृष्ण ने सोचा कि कैसी दयनीय स्थिति हो गयी थी युगपुरुष कहे जाने वाले पितामह भीष्म की कि वे अपनी शक्तियों का उपयोग अपराधियों को दंडित करने में भी नहीं करते थे।
परन्तु जब पांडव पुनः लौट आये, तो भीष्म को शायद यह अनुभव हुआ कि मैंने पांडवों के साथ अब तक बहुत अन्याय किया है, इसलिए अब उनके साथ अन्याय नहीं होना चाहिए। इसलिए उन्होंने तत्काल युधिष्ठिर को युवराज पद पर अभिषिक्त करने के लिए जोर डाला। राजसभा में भी अधिकांश सभासद युधिष्ठिर के पक्ष में थे, यद्यपि दुर्योधन और उसकी चौकड़ी ने बहुत विरोध किया, परन्तु अन्ततः युधिष्ठिर को युवराज बनाने का प्रस्ताव राजसभा ने स्वीकार कर लिया। कृष्ण जानते थे कि ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर हस्तिनापुर की प्रजा में बहुत लोकप्रिय थे और उनकी सज्जनता की सभी प्रशंसा किया करते थे। इसके विपरीत दुर्योधन हमेशा दम्भ और अहंकार से भरा रहता था तथा प्रजा को तुच्छ समझता था। उसके भाई और साथी प्रायः प्रजा को पीड़ित किया करते थे। इसलिए प्रजा भी चाहती थी कि युधिष्ठिर युवराज के रूप में शासन का सूत्र अपने हाथों में ले लें। राजसभा में कई प्रतिनिधियों ने इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया था।
लेकिन दुर्योधन इतनी सरलता से हार मानने वाला नहीं था। यह बात कृष्ण को ही नहीं, बल्कि सभी जनों को ज्ञात हो गयी थी कि राजसभा की बैठक के बाद दुर्योधन अपने अन्धे माता-पिता के सामने जाकर बहुत रोया-धोया और स्वयं को युवराज घोषित करने की मांग की। उसका एक मात्र तर्क यह था कि पांडव महाराज पांडु की वैध सन्तान नहीं हैं, इसलिए कुरुवंश के नहीं हैं। वह यह भूल गया कि इस प्रकार तो उसके पिता भी कुरुवंश की वैध सन्तान नहीं हैं। वैसे भी जन्मांध होने के कारण वे किसी भी प्रकार से राज्य के उत्तराधिकारी नहीं बन सकते।
इसलिए जब दुर्योधन की मांग धृतराष्ट्र और गांधारी दोनों को स्वीकार नहीं हुई, तो उनका भावनात्मक भयादोहन करने के लिए दुर्योधन ने आत्मघात करने की धमकी दी। यह उसका अन्तिम शस्त्र था। वह जानता था कि पुत्र-मोह ही उसके अंधे पिता की सबसे दुर्बल नस है। उसने इसका पूरा लाभ उठाया। दुर्योधन की आत्मघात की धमकी से धृतराष्ट्र डर गये और इस बात पर तैयार हो गये कि वे पुनः इस विषय पर पितामह भीष्म और विदुर से चर्चा करेंगे। इस पर दुर्योधन मान गया।
दुर्योधन को संतुष्ट करने की बात पर भीष्म, धृतराष्ट्र और विदुर के बीच गहन चर्चा हुई। भीष्म और विदुर दोनों दुर्योधन की मांग को अनुचित मानते थे, इसलिए उसे सिरे से नकारने के पक्ष में थे। परन्तु धृतराष्ट्र दुर्योधन द्वारा दी गयी आत्महत्या की धमकी से बहुत डरे हुए थे। यह डर उन्होंने स्पष्ट रूप से भीष्म के सामने रख दिया। इसके साथ ही उन्होंने अपनी अंधता और अपंगता को अपनी बात पर बल देने के लिए अस्त्र के रूप में प्रयोग किया। अन्ततः भीष्म और विदुर इस बात पर तैयार हो गये कि यदि राज्य का विभाजन करने से युधिष्ठिर और दुर्योधन दोनों को संतुष्ट किया जा सकता है, तो वैसा ही किया जाना चाहिए।
हस्तिनापुर का विभाजन निश्चित हो जाने के बाद इस बात पर गहन चर्चा हुई कि पांडवों को राज्य का कौन सा भाग दिया जाय और दुर्योधन को कौन सा। दुर्योधन किसी भी स्थिति में हस्तिनापुर को छोड़ने के लिए तैयार नहीं था और उसके साथी भी उसकी हां में हां मिला रहे थे। उसने प्रस्ताव रखा कि हमारे कुरुवंश की जहां प्राचीन राजधानी थी खांडवप्रस्थ वह क्षेत्र युधिष्ठिर को दे दिया जाये। यह क्षेत्र यमुना नदी के पार पड़ता था और वहां उस समय घनघोर जंगल था। दुर्योधन ने हठ करके अपने अंधे पिता को इस बात पर तैयार कर लिया कि पांडवों को खांडवप्रस्थ ही दिया जाये और इसके अलावा कुछ भी नहीं दिया जाये।
यह एक प्रकार से पांडवों को पुनः देशनिकाला दे देने के समान था। लेकिन युधिष्ठिर अपने बड़ों का इतना सम्मान करते थे कि पारिवारिक कलह बचाने के लिए उन्होंने इस घोर अन्याय को भी स्वीकार कर लिया।
(जारी…)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
आप महाभारत को बहुत रोचक तरीके से प्रस्तुत कर रहे हैं. सारा उपन्यास पढ़ना है.
आभार, अजीत जी.
आपका उपन्यास अच्छा लगा इसको जल्दी पुरा किजिये
धन्यवाद, भाई. उपन्यास अभी लिखा जा रहा है. इसकी लगभग ५० कड़ी हैं. जल्दी ही पूरा होगा.