उपन्यास अंश

उपन्यास : शान्तिदूत (बारहवीं कड़ी)

अब कृष्ण राजसूय यज्ञ के समय हुई घटनाओं को स्मरण करने लगे।

राजसूय यज्ञ करना सरल नहीं था। सबसे पहले तो चारों ओर दिग्विजय के लिए सेनायें भेजनी थीं, ताकि वे सभी राज्यों को जीतकर उन्हें महाराज युधिष्ठिर को सम्राट मानने के लिए बाध्य करें। इस हेतु युधिष्ठिर के चारों भाइयों को चारों दिशाओं में सेनाओं के साथ भेजा गया। उनको अन्य राज्यों को जीतने में कोई कठिनाई नहीं हुई, क्योंकि अधिकांश ने बिना युद्ध किये ही उनकी प्रभुता स्वीकार कर ली और कर देना स्वीकार किया। जिन राजाओं ने युद्ध करने का साहस किया भी उनको पराजित होना पड़ा और कर भी देना पड़ा। दिग्विजय करके चारों भाई सेनाओं सहित लौट आये।

सभी सेनाओं के लौट आने के बाद राजसूय यज्ञ की तैयारियाँ प्रारम्भ हो गयीं। सबसे पहले सभी मित्र राजाओं और सन्त महात्माओं को निमंत्रण भेजे गये। हस्तिनापुर में भी निमंत्रण भेजा गया और पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, महाराज धृतराष्ट्र, महामंत्री विदुर एवं दुर्योधन सहित सभी कौरव भाइयों को बुलाया गया। इसी प्रकार द्वारिका से भी सभी यादव प्रमुखों को निमंत्रण भेजा गया। वहां से महाराजा उग्रसेन, वसुदेव, बलराम, सात्यकि सहित सभी प्रमुख व्यक्ति सम्मिलित हुए थे। निर्धारित तिथि से एक दिन पहले ही सभी अतिथि आ गये, जिनको उचित भवनों में ठहराया गया।

कौरव तो अपने परिवार के ही सदस्य थे, अतः उनको भी राजसूय यज्ञ में विभिन्न कार्य दिये गये। युवराज दुर्योधन को भेंट में प्राप्त होने वाली वस्तुओं के एकत्रीकरण और सुरक्षा का दायित्व दिया गया। अधीनस्थ राजाओं ने सम्राट युधिष्ठिर को सोना, चांदी, हीरे, रत्न आदि बहुमूल्य सम्पत्ति भेंट की थी, जिनका एक बड़ा ढेर लग गया था। उस ढेर को देखकर दुर्योधन की आंखें चौंधिया गयीं। उसको इससे बहुत ईर्ष्या  हुई। पांडवों का भवन भी विलक्षण था। उसको देखकर सभी कौरव हतप्रभ रह गये।

राजसूय यज्ञ की सभी क्रियायें यथाविधि सम्पन्न की जा रही थीं। जब अग्रपूजा का समय आया, तो सभी ने विचार विमर्श किया कि अग्रपूजा का सम्मान किसको दिया जाना चाहिए। वहां उपस्थित व्यक्तियों में से किसी एक को ही यह सम्मान दिया जाना था। महाराज युधिष्ठिर ने पितामह भीष्म का नाम प्रस्तावित किया। लेकिन पितामह भीष्म ने स्वयं भगवान् कृष्ण का नाम रखा। उनका कहना था कि यहां उपस्थित व्यक्तियों में से श्री कृष्ण ही हर दृष्टि से अग्रपूजा का सम्मान पाने के अधिकारी हैं। उनकी बात का भगवान वेदव्यास, महात्मा विदुर तथा अन्य उपस्थित जनों ने भी समर्थन किया। अतः श्री कृष्ण को अग्रपूजा के लिए चुन लिया गया।

कृष्ण को याद था कि जब अग्रपूजा के लिए पितामह भीष्म उनका अभिषेक करने के लिए आगे बढ़े, तो राजाओं की पंक्ति में बैठा हुआ चेदिराज शिशुपाल, जो मेरा फुफेरा भाई लगता था, इसका विरोध करने के लिए उठकर खड़ा हो गया। उसने पितामह भीष्म, भगवान वेदव्यास, राजा उग्रसेन, वसुदेव और द्रोणाचार्य के होते हुए भी कृष्ण की अग्रपूजा का विरोध किया। पितामह भीष्म, महात्मा विदुर और स्वयं महाराज युधिष्ठिर ने उसको युक्तियुक्त उत्तर दिये, परन्तु वह संतुष्ट नहीं हुआ और अनर्गल प्रलाप करने लगा। उसके कथन तर्क छोड़कर व्यक्तिगत लांछनों और अशोभनीय अपशब्दों पर उतर आये, तो महाबली भीम और अर्जुन उसको मारने के लिए उठे। लेकिन कृष्ण ने संकेत से उनको बैठा दिया।

कृष्ण को स्मरण था कि मैं मन ही मन उसके अपराधों को गिन रहा था। उन्होंने शिशुपाल की माता अर्थात् अपनी बुआ को वचन दिया था कि मैं उसके सौ अपराधों को क्षमा कर दूँगा। सौ की गिनती पूरी होते ही कृष्ण ने शिशुपाल को चेतावनी दी कि अब बोला गया कोई भी अपशब्द उसका अन्तिम शब्द होगा। परन्तु शिशुपाल के सिर पर तो मृत्यु नाच रही थी, उसने कृष्ण की चेतावनी को अनसुना कर दिया और अपशब्दों भरा अनर्गल प्रलाप करता रहा, तो कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया। कृष्ण को बहुत खेद हुआ था कि राजसूय यज्ञ जैसे मांगलिक अवसर पर एक मानव-वध करना पड़ा, लेकिन यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हो इस कर्तव्य के कारण वैसा करना आवश्यक हो गया था।

शिशुपाल के वध के पश्चात् राजसूय यज्ञ निर्विघ्न सम्पन्न हुआ। यज्ञ पूरा होने के बाद सभी अतिथि गण यथायोग्य भेंट लेकर लौट गये। सभी कौरव भी हस्तिनापुर चले गये और कृष्ण भी अपने परिजनों के साथ द्वारिका को प्रस्थान कर गये।

इस यज्ञ से महाराज युधिष्ठिर की सार्वभौम सत्ता सम्पूर्ण आर्यावर्त में स्थापित हो गयी। सम्राट युधिष्ठिर अत्यन्त योग्यता से राजकार्य करने लगे, जिससे सभी प्रजाजन संतुष्ट रहते थे।

(जारी…)

— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

2 thoughts on “उपन्यास : शान्तिदूत (बारहवीं कड़ी)

  • Raj kumar Tiwari

    Bahut Acchi Katha Hai

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, राज कुमार जी.

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