बस पाकिस्तान चले जाइये
उस दिन हमने अपने परम शत्रु अंसारी मियाँ की तरफ दोस्ती का हाथ बढाया. “मियाँ, अब हम पक्के दोस्त हो सकते हैं. आप बस समझौता एक्सप्रेस में बैठकर पाकिस्तान चले जाइये। आप वहाँँ जाएंगे न, तो मैं उसमें बैठकर आपसे मिलने आऊँगा, फिर हम वहीं कहीं चौराहे की टपरी पर चाय पिएंगे। दुनिया देखेगी आपकी हमारी दोस्ती को, टी.वी. में आएगा, अखबारों में चित्र छपेंगे। मुझे नोबल पुरस्कार मिल जाएगा।“
वे थोड़ा नरम पड़े-”अरे मियाँ, इससे तुम्हें नोबल पुरस्कार मिल जाएगा! बात कुछ हजम नहीं हो रही?“
”मिलेगा भाईजान, जरूर मिलेगा-शांति का नोबल पुरस्कार मिलेगा? मैंने अब तक शांति फैलाने के सारे प्रयास किये हैं, बस यही एक रह गया है। भाई, मुझे नोबल प्राइज़़ चाहिए-शांति का। बस आपका सहयोग चाहिए।“ मैंने समझाया तो उन्होंने सिर पीट लिया। ”देखिये, सिर मत पीटिए। अब विज्ञान का नोबल पुरस्कार तो मुझे मिलने रहा। भैया, हायर सेकेण्ड्री में प्रयोग करते थे तो, बड़ी मुश्किल से पास होने लायक अंक मिल पाते थे। उसके लिए भी मास्साब के घर का आटा-चावल, गुरु-दक्षिणा में पिसवाना पड़ता था। हाँ, हमारी खानदान में अब तक बस एक वैज्ञानिक पैदा हुआ है।“
मेरी बात से अंसारी साहब को हैरानी हुई, क्योंकि उन्होंने जबसे देखा है, मेरी खानदान में या तो चूड़ी बेचनेवाले हुए या इक्का हांकने वाले. कायदे से उनका वारिस होने से मौका अवश्य मिलना चाहिये, पर मिलेगा नहीं। क्यों? क्योंकि वैसा सिस्टम नहीं है। अल्फ्रेड नोबल साहब एक गलती कर गये। अगर वे अपनी वसीयत में लिख जाते कि जातिगत आधार पर मिलनेवाले भारतीय आरक्षण की तरह इसे भी उनकी आनेवाली पीढ़ियों को दिया जाए. पर वे ऐसा लिखना भूल गए.
”तो फिर आप अर्थ-शास्त्र का नोबल प्राइज़ ले लीजिए। आपसे बड़ा कंजूस भला कहीं खाक छानने पर भी मिलेगा?“ उन्होंने चिमटी काटी।
“भाई जान काहे दिल दुखाते हो? देखो भाई, अपनी अर्थ-शास्त्र की पे सिर्फ अर्थ समझ में आत है शास्त्र के ज्ञान में मैं कोरा ही रहा। महीने का अंत आने पर मुझे अपने भारतीय का होने का आभास होता है, जब मैं अपने दोस्तों को समझाता हूँ कि तुम्ही मेरे अमेरिका और फ्रांस हों मैं उनकी ओर ऋण के लिए ऐसे देखता हूँ, जैसे विश्व-बैंक की ओर भारत।“ मैंने अपनी व्यथा प्रकट की।
अंसारी मियाँ अपना सिर खुजाने लगे। मैंने कहा-”कुछ मत खुजाइए। बस मेरी बात मान जाइए। मुझे अभी-भी शांति का नोबल पुरस्कार मिल सकता है। भाई जान! अगर मैं लड़की होता तो मिस वल्र्ड के लिए प्रसास करता। पर क्या करूँ, टेक्निकल प्राबलेम है! अब सिर्फ यह शांति ही साथ दे सकती है, और आप। इस क्षेत्र में सब कुछ कर चुका हूँ, बस यही एक ट्रेन और बस का सफर बचा है। उधर मैं बस में बैठकर पाकिस्तान पहुँचा और अगले दिन मुझे नोबल पुरस्कार मिला।“
”अच्छा साब, अब तक आपने शांति के लिए क्या-क्या किया है? जरा बताना।“ वे बोले।
”अजी क्या नहीं किया? कक्षा में बच्चे होमवर्क करके नहीं लाते, उनको कभी नहीं डाँटता-मारता। बच्चों के माँ-बाप को बुरा न लगे, पहचानवालों से संबंध आत्मीय रहे, इसलिए उनके बच्चों को बुद्धू होने पर भी अधिक अंक देता हूँ। शांति बनी रहती है-पे्रम बढ़ता है। पड़ोसियों से यदि सुबह लड़ता हूँ तो सूरज गड़ा हो जाता है तो समझा देता हूँ-”देखिए सर, अभी कितना भी लड़ो-गुस्सा करो, मरने के बाद तो शांत हो जाओगे! यदि महाभारत युद्ध में अर्जुन का सारथी मैं होता ना, तो कभी झगड़ा ही नहीं होता। कृष्ण ने ज्ञान देकर सबको लड़वा-मरवा दिया।“ बेचारा! समझदार आदमी है, समझ जाता है, फिर नहीं लड़ता। थोड़ा प्रिंसिपल डर जाता है, थोड़ा मैं। शांति अपने आप स्थापित हो जाती है। पर इतने के बाद भी नोबल पुरस्कारवालों ने मुझे नालायक समझ रखा है-शांतिदूत नहीं। आप पाकिस्तान जाइए, मैं शांतिदूत बनकर बस में आउँगा। बनारसी पान लेकर। एक ट्राय और मार लेता हूँ।“
”अब क्या है, गोलीबारी तो रोज़ होती रहेगी, सैनिक शहीद होते रहेंगे। ये तो पाॅलिटिक्स है, हमें क्या? दोनों देश की सरकारें मूर्ख हैं। मैं तो कहता हूँ, दोनों ओर के सैनिकों को खाली बंदूकें देकर खड़ा कर दो। काहे को गोली-बारूद देना। अरे! जब गोली नहीं रहेगी तो काहे को कोई मरेगा और मारेगा। न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी। और वहाँ जाओगे तो कल जब हमारे-तुम्हारे बाल-बच्चे बड़े हो जाएंगे तो क्रिकेट मैच खेल लेंगे। बचा-खुचा शांति-यज्ञ अपने आप सम्पन्न हो जाएगा। मुझे नोबल प्राइज़ मिल जाएगा।“ मैंने फिर समझाया।
वे फिर बोले-”शरद भाई, आप तो कवि हैं, व्यंग्य भी लिखते हैं, और लिखो। आपको साहित्य का नोबल पुरस्कार मिल सकता है।“
”क्या खाक मिल सकता है! भाईजान, प्रेमगीत और ग़ज़लें लिखते-लिखते, मैं थक गया। जिसके लिए लिखता था, वह तो नहीं समझ सकी आज तक। उसने कभी आय लव यू नहीं कहा!! तो नोबल प्राइज़वाले क्या समझेंगे? और व्यंग्यकारों को तो वैसे ही कोई पास फटकने नहीं देता। अब तो इस लेख के बाद यदि देनेवाले भी होंगे तो, नहीं देंगें। टैगोर दादा ने जवानी में लिखना आरंभ किया था तो सिर के बाल बढ़ने और दाढ़ी के बाल पकने तक बुे जल्दी चाहिए, बुे नोबल पुरस्कार मिल जाएगा।“ मैं खीझा।
अंत में नन्हेें मियाँ अंसारी ने पूछा-“पर आप नोबल पुरस्कार का क्या करेंगें, वह तो हमारे देश में चोरी हो जाता है।”
मैं फूट पड़ा-“भाई जान, उसे आप रख लेना। मुझे अपने बेटे की फीस भरनी है! बेटी की शादी करनी है! मरने से पहले एक छोटा-सा मकान बनाना है। कुछ पुस्तैनी कर्ज़ भी चुकाना है। अंधे बाप की आँखों का इलाज और माँ के दिल का आॅपरेशन करवाना है। इस कमर तोड़ मँहगाई में मैं आम हिन्दुस्तानी थोड़ी-सी तनख्वाह में, जीवन भर भी कुछ न कर पाऊँगा। हाँ, एक वादा करता हूँ आपसे, पुरस्कार की आधी रकम आपको दे दूँगा। बस, आप पाकिस्तान चले जाइए।”
अब मेरे परम मित्र नन्हें मियाँ अंसारी की आँखें नम हो गयीं थीं।
शरद जी , कमाल की वियंग्य कथा लिखी है , हंसी हंसी में आप ने भारत की नीतियां और आम आदमी की हालत को बिआं कर दिया है .
करारा व्यंग्य ! शरद जी, आपकी लेखनी में धार है !