ग़ज़ल : ****मेघा रे मेघा**********
उमड़ते घुमड़ते झूमते चले आओ रे मेघ
उष्णता धरा की आकर बुझा जाओ रे मेघ
प्यासी है धरा, बूँद बूँद जल को तरस रही
कोख हो हरी धरा की, जम के बरसो रे मेघ
कारे कारे बदरा दे रहे है बूँदों का प्रलोभन
कण कण धरा का शीतल कर जाओ रे मेघ
बरसो गगन से ऐसे कि भीगे हर तन मन
सजल अँखियों के संग मिल जाओ रे मेघ
हवा भी है व्याकुल उड़ाने को फुहार संग खुशबू
बरसकर कृषक के मुख पर मुस्कान लाओ रे मेघ
“गुंजन” का भी मन मचल रहा भीग जाँऊ सावन में
लगा दो झड़ी सावन की सजन संग आ जाओ रे मेघ ।
सुन्दर रचना, लेकिन क्षमा सहित कहूँगा कि शिल्पगत बहुत सी कमियाँ भी है इस रचना में ,माफ़ी चाहूँगा कृपया अन्यथा ना लें… सादर वन्दे…
bahut bahut shukriya vijay sir ji ….aabhar hu aapki
aabhar gurmel singh ji ….protsan dene ke liye ,,,,i wll try
गुंजन जी , आप बहुत अच्छा लिखती हैं . आगे भी इंतज़ार रहेगा .
बहुत सुन्दर ग़ज़ल. वर्तमान मौसम के अनुरूप.