उपन्यास : शान्तिदूत (चौदहवीं कड़ी)
कृष्ण को कुरुओं की राजसभा में द्रोपदी के अपमान की सभी बातें बाद में ज्ञात हुईं। उनको इन घटनाओं का भली प्रकार स्मरण था। दुःशासन द्रोपदी के वस्त्र खींचने का पूरे बल से प्रयत्न कर रहा था और द्रोपदी भी असहायों की तरह अकेली ही अपनी लज्जा बचाने का प्रयास कर रही थी।
पांडव स्वयं को हार चुके थे। वे चुपचाप सिर नीचा किये अपनी विवाहिता पत्नी के अपमान और उसके वस्त्रहरण की कोशिशों को सहन करते रहे। उनको भी अपनी धर्मपत्नी के अपमान पर क्रोध आ रहा था, परन्तु युधिष्ठिर ने सबको नियंत्रित रखा और वे कोई सक्रिय विरोध न कर पाये। केवल भीम ने कठोर प्रतिज्ञायें की थीं। पहले जब दुर्योधन ने द्रोपदी को अपनी नंगी जाँघ दिखाते हुए उस पर बैठने का इशारा किया था, तो भीम ने जोर से घोषणा करते हुए उसकी जाँघ तोड़ने की प्रतिज्ञा की थी। इस प्रतिज्ञा पर महामंत्री विदुर ने जोर देकर कहा था कि यह प्रतिज्ञा कुरुवंश के विनाश की घोषणा है, परन्तु दुर्योधन और उसके दुर्मति साथियों पर इसका कोई प्रभाव नहीं हुआ।
भीम ने दूसरी प्रतिज्ञा तब की थी, जब दुःशासन ने द्रोपदी के बालों को पकड़कर खींचा था। तब भीम ने उठकर घोषणा करते हुए प्रतिज्ञा की थी कि जिन हाथों से दुःशासन ने द्रोपदी के बालों को पकड़कर खींचा है, उनको मैं जड़ से उखाड़ दूँगा और उसके सीने को फाड़कर खून पीयूँगा। उसी समय द्रोपदी ने भी प्रतिज्ञा की कि जब तक इन बालों को दु:शासन के रक्त से नहीं धो लूँगी, तब तक इनको खुला ही रखूंगी।
इन भीषण प्रतिज्ञाओं को सुनकर कौरवों को पांडवों पर हँसी आ रही थी। वे उनको उकसाने के लिए तरह-तरह के व्यंग्य कस रहे थे। भीम और अर्जुन क्रोध से उबल रहे थे, परन्तु अपने बड़े भाई के आदेश की प्रतीक्षा कर रहे थे। ऐसी विषम परिस्थिति में भी उन्होंने अपने बड़े भाई के प्रति कोई असम्मान नहीं दिखाया।
यह बहुत आश्चर्यजनक बात थी, क्योंकि साधारण भाइयों के बीच अत्यंत तुच्छ विषयों पर भी वाद-विवाद हो जाते हैं, जो आगे चलकर शत्रुता में बदल जाते हैं। लेकिन पांडव इस में अपवाद सिद्ध हुए। अपनी पत्नी को दांव पर लगाने की इतनी बड़ी भूल पर भी छोटे भाइयों ने बड़े भाई के प्रति रोष व्यक्त नहीं किया। एक बार भीम क्रोध से उबला भी, लेकिन अर्जुन ने उसको संभाल लिया। नकुल और सहदेव ने भी कुछ नहीं कहा और सदा की तरह अपने बड़े भ्राताओं के प्रति सम्मान बनाये रखा।
यहाँ तक कि महारानी द्रोपदी ने भी अपने पतियों को ललकारा, लेकिन एक बार भी अपने अपमान के लिए उनको दोषी नहीं ठहराया। इसका कारण क्या हो सकता है? क्या उनको यह विश्वास था कि वे किसी नियति के हाथों में खेल रहे हैं और अंततः इसका परिणाम सुखद ही होगा?
कृष्ण ने सोचा कि यह अच्छा ही हुआ कि पांडवों ने उस अवसर पर स्वयं को नियंत्रित रखा और कोई तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। कल्पना कीजिये कि अगर पांडव अपना संयम खोकर उसी समय हथियार उठा लेते और कौरवों पर हमला कर देते, तो क्या होता? तो सारे कौरव एक साथ मिलकर उनके ऊपर टूट पड़ते, जिनमें भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य और कर्ण भी शामिल होते। सभी मिलकर पांडवों की हत्या कर देते, दस-बीस को मारकर पांडव वहीं समाप्त हो जाते. उनके न रहने पर द्रोपदी की और भी अधिक दुर्दशा होती, उनको और अधिक अपमान सहन करना पड़ता।
इसलिए कृष्ण इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यह वास्तव में अच्छा ही हुआ कि पांडवों ने उस समय अपने रोष को पी लिया और उचित समय पर हथियार उठाने का निश्चय कर लिया। भीम ने जो प्रतिज्ञाएँ की थीं, उनको पूरा होना ही था। केवल उचित समय की प्रतीक्षा थी और वह समय शीघ्र ही आने वाला है। पांचाली के अपमान का पूरा-पूरा प्रतिशोध कौरवों से और उनके सहयोगियों से लिया जायेगा।
(जारी…)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
बात सही है , अगर उस वक्त पांडव अपना संयम खो देते तो किया होता , वहीँ जो आप ने लिखा है कि दस बीस को मार कर खुद भी जान से हाथ धो बैठते . दरोपती भी अपनी जगह सही थी , कौन इस्त्री अपने पती को कतल हुए देखना चाहेगी . यह जो पुरातन ग्रन्थ हैं इसी लिए उन पर कोई टिपणी करनी नहीं बनती किओंकि उस समय किन्न हालात में वोह घटनाएं हुईं हमें पता नहीं . अक्सर लोग पांडव पर दोष लगाते हैं कि वोह अपनी पत्नी की बेइजती होते देखते रहे . अगर वोह भड़क उठते तो महाभारत की लड़ाई नहीं होती और पांडव का गौरव वापिस हासिल नहीं होता . दुसरी जंग में पर्ल हार्बर पर जापान ना हमला करता तो हिरोशिमा नागासाकी पर बम्ब नहीं फैंके जाते . बम्ब फैंकने से जापान को सुरंदर होना पड़ा .
आभार भाई साहब. आपका कहना सत्य है.