उपन्यास : शान्तिदूत (सत्रहवीं कड़ी)
पांडवों के वनवास के बारे में सोचते हुए कृष्ण को दुर्योधन के वनविहार की घटना का स्मरण हुआ।
अपनी जन्मजात दुष्टता के कारण दुर्योधन पांडवों को वन में भी शान्ति से नहीं रहने देना चाहता था। उसे पता लगा कि इस समय पांडव द्वैत वन में बड़े अभावों में कष्टपूर्ण जीवन जी रहे हैं। उनका उपहास उड़ाने के लिए उसने उसी वन में वन विहार की योजना बनायी। महाराज धृतराष्ट्र से उसने आखेट के नाम पर वन जाने की अनुमति ले ली। दुर्योधन ने इसमें केवल अपने मित्र कर्ण और कुछ गिने-चुने सैनिकों को साथ में लिया। आहार-विहार की पर्याप्त सामग्री साथ में लेकर वे द्वैत वन में विशेष रूप से उसी स्थान के निकट पहुँचे, जहाँ पांडव अपनी कुटी बनाकर रह रहे थे। वहीं एक सरोवर भी था, इसलिए दुर्योधन और उसके साथियों ने तालाब के किनारे ही आमोद-प्रमोद करने का निश्चय किया।
जब वे सरोवर की ओर जाने लगे, तो मार्ग में ही कुछ गंधर्व सैनिकों ने उनको रोक दिया। उन्होंने दुर्योधन को बताया कि सरोवर में उस समय गंधर्वों के राजा चित्रसेन के परिवार की महिलायें स्नान कर रही हैं, इसलिए किसी पुरुष को उधर जाने की अनुमति नहीं है। यह सुनकर दुर्योधन क्रोध से उन्मत्त हो गया। उसने कहा कि ‘मैं यहाँ का सम्राट हूँ, यह सारा वन मेरा है। कोई मुझे कहीं भी जाने से कैसे रोक सकता है?’
लेकिन गंधर्वों ने उसकी बात नहीं मानी। इस पर दुर्योधन युद्ध के लिए तैयार हो गया। उधर गंधर्व सैनिक भी युद्ध के लिए सन्नद्ध हो गये। इस युद्ध में गंधर्वों ने बड़ी सरलता से कौरव सैनिकों को मार भगाया। उन्होंने दुर्योधन को पकड़कर बाँध लिया। महान धनुर्धर कर्ण की सारी वीरता गंधर्वों के सामने रखी रह गयी। वह अपने मित्र की कोई सहायता नहीं कर सका और अपने प्राण बचाकर भाग खड़ा हुआ।
इधर भागे हुए कौरव सैनिकों ने पांडवों के पास जाकर सूचना दी कि महाराज दुर्योधन को गंधर्व राज चित्रसेन के सैनिकों ने बन्दी बना लिया है। यह समाचार जानकर भीम और अर्जुन बहुत प्रसन्न हुए कि दुर्योधन यहाँ हमारा उपहास उड़ाने आया होगा और अब उसे अच्छा दंड मिल गया है। लेकिन महाराज युधिष्ठिर ने कहा कि भले ही वे सौ और हम पाँच आज अलग-अलग हैं, लेकिन बाहरी शत्रु के सामने हम एक सौ पाँच हैं। इसलिए तुम दोनों तुरन्त जाकर दुर्योधन को मुक्त करा लाओ। आवश्यक होने पर उनसे युद्ध भी करना।
गंधर्वराज चित्रसेन अर्जुन का मित्र था। वह पांडवों का बहुत आदर करता था। जब भीम और अर्जुन ने जाकर उससे कहा कि हमारे भाई दुर्योधन को बन्दी बनाकर तुमने ठीक नहीं किया है। महाराज युधिष्ठिर ने कहा है कि उसको तुरन्त मुक्त कर दो, अन्यथा हमें तुम्हारे साथ युद्ध करना होगा। चित्रसेन ने कहा कि यद्यपि दुर्योधन ने जो अपराध किया है उसका दंड मृत्युदंड होता है, परन्तु आपके कारण मैंने उसे केवल बन्दी बनाकर रखा हुआ है। अब आप कह रहे हैं, तो छोड़ देता हूँ। इस तरह उसने पांडवों की बात का सम्मान करते हुए दुर्योधन को मुक्त कर दिया।
मुक्त होकर दुर्योधन अपने भगोड़े सैनिकों के पास आया। वहीं उसे कर्ण भी मिल गया। पांडवों की कृपा से मुक्त होने के कारण उसे अपने आप पर बहुत ग्लानि हो रही थी। कहाँ तो वह पांडवों का उपहास करने आया था और कहाँ उसे स्वयं इस प्रकार अपमानित होना पड़ा। वह कर्ण से कहने लगा कि पांडवों की कृपा से प्राणदान पाकर मैं जीवित नहीं रहना चाहता और यहीं चिता में प्रवेश करके मर जाऊँगा। इस पर कर्ण ने उसे बहुत समझाया। यद्यपि वह स्वयं भी अपने प्राण बचाकर भाग गया था, लेकिन उसने दुर्योधन को वचन दिया कि ‘इन पांडवों को मैं अकेला ही तुम्हारे लिए जीत लूँगा। तुम अपने प्राण मत दो। मैं तुम्हारे आज के अपमान का बदला पांडवों से लूँगा।’ इस तरह बहुत सी बातें कह सुनकर उसने दुर्योधन को आत्महत्या करने से रोका।
उन्होंने अपने साथ के सैनिकों को निर्देश दिया था कि हस्तिनापुर में जाकर किसी से इस घटना के बारे में कुछ नहीं कहना है। लेकिन जब वे निश्चित समय से बहुत पहले ही लौट आये, तो हस्तिनापुर में शंका उत्पन्न हो गयी और महामंत्री विदुर ने दुर्योधन के साथ गये हुए सैनिकों से पूछताछ करके इस घटना का पता लगा लिया। अन्ततः गंधर्वों द्वारा युवराज दुर्योधन के अपमान और पांडवों की सहायता से उसके मुक्त होने का समाचार सबको ज्ञात हो गया। जब पितामह भीष्म और महाराज धृतराष्ट्र को इस घटना की जानकारी हुई, तो उनको बहुत क्रोध आया। उन्होंने दुर्योधन को ऐसी मूर्खता करने पर फटकारा। इतना ही नहीं उन्होंने आगे कभी भी वन विहार अथवा आखेट के लिए उसके वन में जाने पर प्रतिबंध लगा दिया।
इस घटना के बाद दुर्योधन ने कभी वनवास के दिनों में पांडवों के आस-पास भी फटकने का साहस नहीं किया और उनका समय शान्ति से बीतने लगा।
वनवास के दिनों में पांडव देश के विभिन्न भागों में निवास करते थे। जहाँ भी वे रहते थे, वहीं उनसे मिलने के लिए बहुत से साधु-सन्त और साधारण जन आया करते थे। उनके सान्निध्य में पांडवों का समय अच्छी तरह कट जाता था। धीरे-धीरे उनके बारह वर्ष पूरे हो गये और अब उनको एक वर्ष का अज्ञातवास करना था। इस अवधि में उनको इस बात की सावधानी रखनी थी कि कोई उनको पहचान न ले। अगर उनमें से एक भी दुर्योधन या उसके सैनिकों द्वारा पहचान लिया जाता, तो उन सभी को फिर एक बार 12 वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास करना पड़ता। इसलिए वे बहुत सावधानी से अपने अज्ञातवास के विकल्पों पर विचार करने लगे।
(जारी…)
— डॉ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
उपन्यास कि यह कड़ी भी बहुत अच्छी लगी. आप प्रत्येक घटना पर बहुत गहराई से लिखते हैं.
बहुत बहुत धन्यवाद, जगदीश जी.
विजय भाई , इस कहानी से एक बात तो साफ़ ज़ाहिर है कि जब नेकी और बुराई की जंग होती है तो भले ही नेकी को दुःख झेलने पड़ें लेकिन जब नेकी की महक फैलनी शुरू हो जाती तो अछे और साथ देने वालों की संखिया बड़ने लगती है , वोह उस महक की तरफ खींचे चले आते हैं . कौरव शक्तिशाली थे और लोगों पर ज़िआद्तिआनं करते थे . लोग बेबस जरुर हो जाते हैं लेकिन उन के दिलों में आक्रोश बड़ने लगता है और यही आक्रोश अतियाचार के खिलाफ डट कर मुकाबले के लिए खड़ा हो जाता है . युधिष्टर सच के रास्ते पर खड़ा था बेशक उस ने जुआ खेलने की गलती के कारण अपना सब कुछ खो दिया था लेकिन सच्चाई का रास्ता नहीं छोड़ा था और इसी कारण से उन के सभी भाई उस की हर बात को मानते थे . यह सच्चाई और अच्छा विवहार ही बड़े बड़े रिशिओं मुनिओं को पांडव की और खींच लाया . क्रिशन को यह बात भली भाँती मालूम थी , इसी लिए आख़री समय तक पांडव का साथ देता रहा .
बिलकुल सही समझा है आपने, भाई साहब. सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं. अंत में सत्य की जीत होती है. टिप्पणी के लिए आभार !