जूतों की शान
एक ऐसी वस्तु का नाम बताइए जो खाने के भी काम आती है और पहनने के भी? चकरा गए? मैं बतलाता हूँ-जूता। वैसे जूता खाने को लेकर एक बात स्पष्ट कर दूँ कि लोग अपने मन से जूता पहनते ज़रूर हैं पर खाते दूसरों के मन से हैं और कहते हैं कि जूते खाए। कितनी विचित्र बात है कि खानेवाले आज तक भी जूतों का स्वाद नहीं बता पाए हैं। कभी-कभी तो ये जूते ‘पड़ते’ भी हैं और बेभाव पड़ते हैं।
जूते, खड़ाऊ प्रजाति का विकसित रूप हैं। खड़ाऊ ने एक लंबा समय आदिवासी रूप में व्यतीत किया और इतना लंबा जीवन बिताने के बाद जूता परिवार में सिर्फ इतने ही सदस्य जुड़े-जूता, चप्पल, सेंडिल और जूती। हमारी सरकार का ‘छोटा परिवार, सुखी परिवार’ का नारा इसी जूता संस्कृति से लिया गया है। पूरे परिवार में एक ही मर्द है, शेष सभी बाइयाँ हैं। इस तरह जूता परिवार नारी प्रधान परिवार है। जूती, जूतों से अधिक सुंदर होेती हैं-नाज़ुक, आकर्षक, सुंदर, देहयष्टि, कमनीय, रूपवती। सेंडिल जूता परिवार में विदेशी बहू है। इटालियन मार्बल से तराशी गयी गुड़िया की तरह। बलखाकर चलती है-अधनंगी, तन्वंगी।
जूते भक्त और भगवान के मिलन में बाधक तत्व हैं। मेरा तो दावा है कि यदि भक्त प्रह्लाद और ध्रुव जूतों को साथ लेकर जाते तो उन्हें न कभी भगवद् प्राप्ति होती और न ही उनकी तपस्या कभी सफल हो पाती। अतः अनुसंधान यह स्पष्ट करते हैं कि पहले के साधु-संत इसीलिए जूते नहीं पहनते थे। जूतों के अविष्कारक को भी कदाचित् इस तथ्य का भान न रहा होगा कि वह मानव समाज में कितनी बड़ी क्रांति करने जा रहा है। उसने भगवान और जूतों को समानता के धरातल पर लाकर खड़ा कर दिया, साहब। उसे नहीं पता था कि ये जूते, मंदिर में जा रहे भक्त का मन भगवान में नहीं लगने देंगे। भक्त के नयनों में प्रत्यक्ष रूप में तो सीता-राम, राधे-श्याम, शिव-पार्वती और लक्ष्मी-नारायण की युगल छबि होगी किन्तु परोक्ष रूप से अपने जूतों-चप्पलों की युगल छबि समाई होगी।
हमारे इतिहास और राजनीति में जूतों ने आरंभ से अपना महत्व बनाये रखा है। युग बदले पर जूतों का महत्व कभी कम न हुआ। एक समय तो अयोध्या का शासन पूरे चैदह वर्षों तक जूतो के दम पर चला था। आज भी हमारी गवर्मेण्ट जूतों के दम पर चलती है कभी-कभी। अन्तर बस इतना है कि चौदह वर्ष तक जूतों से चली वह सरकार त्याग, शांति और निस्वार्थ राजनीति का सात्विक रूप थी और की जूता गवर्मेण्ट स्वार्थ, अशांति और अपराध का कच्चा-चिट्ठा। तब से अब तक शासक अपने-अपने ढंग से जूतों से सरकारें चला रहे हैं। हमारे देश की विधानसभाएँ इसका आदर्श उदाहरण है या विधानसभाओं के यही आदर्श हैं!
जूते हमारी संस्कृति के अंग हैं। हमारे विवाहों में साले-सालियाँ अपने दूल्हे जीजा के जूते चुराते हैं। इन दिनों नेतागण जनता के जूते चुराने में लगे हैं। समय समय की बात है। इतना ही नहीं पिछले कुछ दिनों से जूतों का अंतर्राष्ट्रीय महत्व बढ़ने से कविवर रहीम के दोहे का मर्म समझ आ रहा है अब-
रहीमन देखिन बड़ेन का लघु न दीजिये डारि,
जहाँ काम आवै सुई कहा करे तलवारि।।
जो भी हो जूतों ने सदा ही मानव-समाज को जीने की दिशा दिखाई है। कभी चरणों को चूमकर तो कभी खोपड़ी पर पड़कर। हमारे नेताओं को भी इनसे सीखना चाहिए। कितनी भी विकट परिस्थिति क्यों न हो, एक जूता कभी दूसरे का साथ नहीं छोड़ता- न सिद्धांत के नाम पर, न सत्ता के नाम पर। एक के गुमते या फटते ही दूसरा तुरंत अपने अस्तित्व को नष्ट कर देता है, नकार देता है। हमारे नेताओं की तरह दल नहीं बदल लेता। एक-दूसरे के लिए अपने अस्तित्व को इस प्रकार भुला देने की सात्विक और शाश्वत भावना और कहाँ?
हे जूतो! तुम्हें नमन। काश कि तुम्हारे चरण होते तो उन्हें आज छू लेता। पर देखो न तुम्हारा भाग्य! तुम स्वयं ही किन्हीं चरणों के दास हो। आज तुम विश्व की राजनीति पर छा रहे हो। आशा है तुम और ऊपर तक जाओगे। तुम्हारी इस तरक्की को प्रणाम और शुभकामनाएँ।
जूतों के माध्यम से आपने व्यवस्था पर बढ़िया ब्यंग्य किया है.
समझने वाले तो समझ ही गए होंगे लेकिन किया फर्क पड़ेगा, nothing!
क्या मजेदार लिखा है ! वाह !!
आपकी व्यंग्य रचना पसंद आयी, शरद जी.
बहुत अच्छा व्यंग्य, शरद जी.