कहानी

कहानी : रोज की तरह

उसकी खौफनाक आँखेँ, जिसकी सफेद परतोँ पर अक्सर लाल रक्त धमनियां दिखती थीँ, अंदर धँसी हुयीँ। जिनका भौहोँ के साथ कोई संबंध नही समझ आता था। उसका रंग साँवला था, उसके बाल अधकटे और बिखरे छोटे छोटे थे मटमैले, वो काले कपडे पहनता था हमेशा और एक लंबा सा कोर्ट। कुछ 30 या 35 साल का जवान आदमी था लेकिन दिखता एकदम बूढा सा था। उसका कमरा बारिश मेँ जमती पानी की परत से ढँका दीवारोँ पर अजीब आकृतियोँ के साथ एक जिँदा तहखाने की तरह दिखता था। उसकी टेबल पर एक पैन जिसका कैप नहीँ था, कुछ फटे पुराने कागज़ोँ के टुकडोँ के बीच पडा था। बिस्तर कुछ अस्त व्यस्त था और ऊपर से छत पर लटके पंखे की ऊपरी छत पर पानी के जमा होने पर अजीब आकृति बनी हुयी थी कुछ बडी सी। एक टूटा शीशा टेबल के ऊपर टंगा था और उसके नीचे एक पट्टी थी जहाँ कंघी आदि पुरानी तेल की डिब्बियोँ, परफ्यूम और कुछ पाऊडर के छोटे डिब्बे पडे थे, पूरा कमरा एक बंजर हो चुके कैदखाने सा था।

वो अंदर टेबल के आगे कुर्सी पर बैठा अजीब तरीके से आँखेँ तरेरता आइने को देख रहा था। उसके छोटे टूटे दरवाजे पर राम ने दस्तक दी। वो उस आवाज को टाल गया, पर फिर जैसे राम ने दरवाज़ा खटखटाया। और वो तेज़ी से कुर्सी खडा हुआ और चीखती सी हँसी हँसता हुआ दरवाजे के पास जाकर कोने मेँ छिप गया। राम ने फिर दरवाज़ा खटखटाया। इसबार वो पागलोँ की तरह हँसा जैसे किसी भेडिए को उसके खाने के लिए शिकार मिल गया हो। पर फिर जब राम ने जोर से दरवाज़ा खटखटाया वो मायूस सा, उतरा सा चेहरा लेकर दरवाजा खोले राम के सामने खडा हो गया जैसे डरता एक बच्चा। राम के हाथ मेँ एक थाली थी, जिसमे कुछ खाना था, राम ने कहा ‘कबसे खटखटा रहा था, कहाँ मरा था बे?’

वो चुप रहा बस एक नादान की तरह देखता रहा राम की आँखोँ मेँ और कुछ देर शांत खडा रहा। राम ने आगे कहा “ये ले खाना खा लेना”। और टेबल पर बिखरे कागज़ोँ को हटाकर उसने थाली रख दी! तभी स्नेहा खुले दरवाजे से एक मग पानी और एक खाली गिलास लेकर आयी।

स्नेहा को देख राम पीछे हट गया और स्नेहा ने मुस्कराकर उस आदमी से कहा ‘भाई ये रहा पानी अब खाना खा लेना”। फिर राम और स्नेहा ने एक दूसरे को देखा और दोनो कमरे से बाहर चले गये। तब तक वो उसी कोने पर खडा नीचे सर झुकाए खडा था। उनके जाते ही उसने दरवाज़ा लगाया और खाने पर टूट पडा। थाली चट कर गया लेकिन किसी बच्चे की तरह खाना उसके मुँह पर छप गया था, कुछ दाल उसकी दाढी पर छपी थी और उसने मग उठाकर पानी पी डाला जैसे जन्मोँ का प्यासा हो, फिर खाना खाकर उसने टूटे आइने मेँ देखा और हँस दिया अपने दाँत दिखाता।

उस धुँधले कमरे की दीवारोँ पर अजीब आकृतियोँ को देखकर उसने आइने को उठाया और दीवारोँ को दिखाने लगा जैसे उन्हे चिड़ा रहा हो, और दबे दबे पाँव पूरे कमरे के चक्कर लगाने लगा तभी घूमकर वो टेबल से टकराया और टेबल पर औँधी पडी गिलास जोरदार आवाज़ के साथ नीचे गिर पडी। वो सहमा आइने को अपनी जगह रखा और डरकर उचककर अपने गंदे बिस्तर पर अपनी मैली सी कंबल को ओढकर उसे तानकर चुपचाप लेट गया।

बाहर स्नेहा और राम सोफे पर बैठे थे राम अखबार पढ रहा था, स्नेहा ने कुछ दबी आवाज़ मेँ कहा “ग्लास गिर गयी लगता है सो गया”। राम ने अखबार पर देखते हुए ही कहा “हूं… रोज़ की तरह!!”
हर दिन वास्तव में यही होता…अन्दर बैठा वो जीव सेरिब्रल पेल्सी नामक एक बीमारी का मरीज था…स्नेहा और राम का उससे मिलना अकस्मात् था कॉलेज के दिनों में वो उनका दोस्त हुआ करता था, घनिष्ठ मित्र, चुलबुला सा…उन दिनों वो काफी स्मार्ट और बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति था, अकसर उसने राम की हर कठिन कार्य में मदद की लेकिन एक बार कुछ यूँ हुआ कि वो राम से डरने लगा! राम से उसकी इतनी गहरी मित्रता थी की वो उसे हमेशा अपने साथ रखना चाहता था…उसके घर परिवार में भी राम का आना जाना था लेकिन वास्तव में राम भी उससे काफी हद तक जुड़ गया था, गाँव से जब राम उसे शहर लाया था तब उसे ये बीमारी नहीं थी बल्कि वो तंदुरुस्त और स्वस्थ था…कॉलेज के अंतिम वर्ष के छटवे महीने में उसे दौरा पड़ा जिसके बाद राम ने उसकी बहुत सेवा भी की थी और उसे अपने साथ अपने घर ले आया था…डॉक्टर का मानना था की अकसर मिर्गी सरीखे इन दौरों से उसे जल्द छुटकारा मिल जायेगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ और उसे इस बीमारी ने घेर लिया,उसके गाँव में उसके बापू और बड़े भाई ने उसके पागलपन के दौरों से तंग आकर उसे एक सरकारी मानसिक चिकित्सालय में छोड़ दिया था! राम को ये बात बिलकुल ना भायी थी और वो उसे अपने साथ अपने घर ले आया था! स्नेहा और राम कॉलेज के दिनों से ही एक दुसरे को जानते थे उनमे काफी प्रेम था,समय समय पर जब उनकी किसी बात पर लड़ाई या झगडा होता तब यही मरीज उन्हें समझाता और काफी कुछ सहयोग करता…एक समय राम और स्नेहा का इतना भयंकर झगडा हुआ कि राम को लगने लगा था कि स्नेहा कभी वापस नहीं आएगी,लेकिन तब ये ही जीव था जो उसे मानकर ले आया और राम की झोली में डाल दिया! उन दिनों कॉलेज का सबसे चहेता लड़का हुआ करता था और जब इसे दौरा पड़ा था तब ये कॉलेज का नेता सरीखा था…डायरेक्टर से लेकर पियून तक इसकी मस्ती के कायल थे..एकदम मस्तमौला आदमी था, लेकिन एक हादसे ने इसके अन्दर एक डर भर दिया था!
और राम का डर भी तब ही इसके दिलो दिमाग में बैठा था वो डर था राम के जोरदार थप्पड़ से पैदा हुआ एक डर, ये राम का सबसे प्रिय दोस्त था लेकिन एक बात कॉलेज में एक फंक्शन के दौरान जब ये मस्ती कर रहा था और राम कप्तान के नाते उसे रोक रहा था तब ये समझकर की राम की तरफ से पूरी छुट है ये उछल कूद करता रहा जब सभी टीचर्स,स्टाफ और स्टूडेंट्स उस रात डिनर के लिए गए अब इसकी हरकते और बढ़ गयीं…तभी कहीं से आशका नाम की एक लड़की से इसने बदतमीजी (जो कि वास्तव में उस गुरुर करती लड़की के लिए एक सही जवाब था) की तो राम को एक छात्रनेता होते हुए ये देखा नहीं गया, वो अपनी जगह से आगे बढ़ा और जाकर एक जोरदार थप्पड़ इसके गाल पर दे मारा ये एक ताकतवर आदमी के हाथ से पड़े थप्पड़ पर यकायक पीछे की तरफ जोर से पलटा और एक स्टील का गिलास नीचे गिरा जिसकी झंकार आज भी शायद इसे सुनाई देती है तो ये सहम उठता है…उस दिन सभी उसपर बहुत हँसे थे और वो उनके हंसने पर पहली बार शर्मिंदा सा हुआ था!उस वाकये के बाद कई बार राम ने माफ़ी मांगी पर सब बेकार, लेकिन अपने सबसे अछे दोस्त को ना खोने के डर के कारण ये राम के साथ झी रहा..आज भी राम से डरता है लेकिन जब वो घर पर नहीं होता या जब वो सामने नहीं होता ये अपनी मस्ती में पगलाया रहता है…स्नेह सब जानती है कभी कभी उसके भोलेपन पर उसे दया आती है और कभी कभी उसके बदमाश रूप पर उसकी आंखें छलक उठती हैं, कि जिस आदमी की वजह से उसने अपने प्यार को पाया वही आज कितना लाचार है, डरता है,लेकिन अपनी दोस्ती की खातिर राम के साथ बना हुआ है! सच तो ये भी है की राम उसे छोड़ना नहीं चाहता अपने दोस्त को इस तरह अकेला छोड़ देना उसकी फितरत में कतई नहीं है!
स्नेहा बस कभी कभी रो देती है कि बीच की कड़ी होने के नाते उसे इन दोनों के संबंधो को भी सुधारना चाहिए..लेकिन एक मानसिक रोगी कबतक स्थिर रह सकता है. इसीलिए डर जाती है और फिर राम का शांत होना कभी कभी गुस्सा कर देना उसे भी अच्छा नहीं लगता!!
तभी पेन्डुलम का घंटा बजता है ४ बज गए…इस आवाज के आते ही वो उठता है…तनकर अंगडाई लेता है और फिर दरवाजा खोलकर बाथरूम चला जाता है!! इसी बीच स्नेहा आती है और जूठे बर्तन और गंदगी साफ़ कर देती है!!
राम घर पर नहीं है कुछ काम से बाहर निकल गया था…तब तक ये दोनों जाकर बगीचे में टहलते हैं और वो बच्चों के साथ मस्ती करने में जुट जाता है, बच्चे खिलखिलाते हैं तो स्नेहा को भी अच्छा लगता है…कभी कभी वो भी इनके साथ शामिल हो जाती है तब सभी बहुत देर तक खेलते हैं..!!
राम गेट खोलता है उसे देखकर ये सीधा खड़ा हो जाता है और चुपचाप घर के अन्दर!! स्नेहा कुछ नहीं बोलती वो राम की तरफ बढती है और उसके हाथो से सामान लेकर अन्दर चली जाती है.. राम उसे देखकर थोडा सा मुस्कुराता है और फिर अन्दर आकर दोनों अपने अपने कामो में बिजी हो जाते हैं..अन्दर उस कमरे में वो अकेला बैठा अपनी कॉलेज की कुछ तसवीरें देख रहा होता है…राम दरवाजा खोलता है और फिर उसके पीछे चुपचाप खड़ा होकर तस्वीरे देखने लगता है, कुछ बोलता नहीं बस चुपचाप स्थिर, वहां एक ख़ामोशी है दो दोस्तों के बीच के फासले हैं..उनके बीते दिनों की यादें आँखों के सामने घूम रही हैं, पलट रही हैं लेकिन कोई कुछ बोलता नहीं..कोई ऐसा शब्द जो ह्रदय से निकला हो…कोई ऐसी बात जो फिर से सब ठीक कर दे उस अकस्मात् आ गयी एक दुसरे के बीच की छाया को दूर करदे ऐसा कुछ भी नहीं होता!! सब बातें ह्रदय में रह जाती हैं और पीछे से स्नेहा चाय चाय…चिल्लाती हुयी कमरे में प्रवेश करती है, राम मुड़ता है और स्नेहा की ट्रे से एक कप उठाता है और एक कप अपने दोस्त को देता है वो सहमा सा कप लेता है और चाय पीने लगता है इस दौरान स्नेहा राम की और देखती है और दोनों एक गहरी मानसिक स्थिति को छिपाते हुए केवल मुस्कुराते हैं…वो चाय पीते हुए तस्वीरों के एल्बम को पलटाकर देखता रहता है और राम पीछे खड़ा उसे…और स्नेहा इन दोनों को…लेकिन एक ख़ामोशी है, या यूँ कहूँ सन्नाटा है जिसने सारे शब्दों को खत्मकर अपनी आगोश में ले लिया है और सब ख़त्म सा ही है…चाय ख़त्म होते ही राम कप लेकर कमरे से बाहर आ जाता है, स्नेहा अन्दर बैठी है यकायक बोल उठती है…कॉलेज की फोटो देख रहे हो?? वो मुड़ता है मुस्कराता है और कहता है “हाँ…” स्नेहा उसे देख मुस्कराती है और उठकर चली जाती है…रोज की तरह!!!

____सौरभ कुमार दुबे

सौरभ कुमार दुबे

सह सम्पादक- जय विजय!!! मैं, स्वयं का परिचय कैसे दूँ? संसार में स्वयं को जान लेना ही जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है, किन्तु भौतिक जगत में मुझे सौरभ कुमार दुबे के नाम से जाना जाता है, कवितायें लिखता हूँ, बचपन की खट्टी मीठी यादों के साथ शब्दों का सफ़र शुरू हुआ जो अबतक निरंतर जारी है, भावना के आँचल में संवेदना की ठंडी हवाओं के बीच शब्दों के पंखों को समेटे से कविता के घोसले में रहना मेरे लिए स्वार्गिक आनंद है, जय विजय पत्रिका वह घरौंदा है जिसने मुझ जैसे चूजे को एक आयाम दिया, लोगों से जुड़ने का, जीवन को और गहराई से समझने का, न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पहलु पर अपार कोष है जय विजय पत्रिका! मैं एल एल बी का छात्र हूँ, वक्ता हूँ, वाद विवाद प्रतियोगिताओं में स्वयम को परख चुका हूँ, राजनीति विज्ञान की भी पढाई कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त योग पर शोध कर एक "सरल योग दिनचर्या" ई बुक का विमोचन करवा चुका हूँ, साथ ही साथ मेरा ई बुक कविता संग्रह "कांपते अक्षर" भी वर्ष २०१३ में आ चुका है! इसके अतिरिक्त एक शून्य हूँ, शून्य के ही ध्यान में लगा हुआ, रमा हुआ और जीवन के अनुभवों को शब्दों में समेटने का साहस करता मैं... सौरभ कुमार!

10 thoughts on “कहानी : रोज की तरह

  • विजय कुमार सिंघल

    अब कहानी बहुत अच्छी हो गयी है।

  • जगदीश सोनकर

    कहानी अच्छी है.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    सौरव जी कहानी लिखने का ढंग बढिया है लेकिन इस से कोई बात सामने नहीं आई .

  • अजीत पाठक

    कहानी मेरी समझ में भी कम आई है. पर ठीक है.

    • धन्यवाद, भाई. कोशिश करूँगा कि आगे और बेहतर लिखूं, जो सबकी समझ में आये.

  • विजय कुमार सिंघल

    कहानी अच्छी है, पर यह क्या सन्देश देती है, यह समझ में नहीं आया.

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