ग़ज़ल
साहिबे – ईमान , पैसे पर फिसल जाता है क्यूँ
अपने मतलब के लिए इन्सां बदल जाता है क्यूँ
रोशनी की जब जरूरत होती है सबको बहोत ,
शाम की आहट से सूरज ,रोज ढल जाता है क्यूँ
इन्तिहा है जुल्म की ,बर्दाश्त की होती है हद
ठोकरें खाने की खातिर ,वो संभल जाता है क्यूँ
उनके भी माँ -बाप या भाई -बहन जैसे हैं हम
किन्तु दहशतगर्द का रिश्ता बदल जाता है क्यूँ
नेकियाँ दरिया मे जाकर डालना अच्छा है तो
हवन करते आदमी का हाथ जल जाता है क्यूँ
वफा के बदले वफा ,हर एक का हक है मगर
बेवफाई का दखल ,हर बार चल जाता है क्यूँ
दर्द की ताबीर है ये बर्फ का दरिया तो फिर
धूप का मरहम लगा,अक्सर पिघल जाता है क्यूँ
——–अरविन्द कुमार ‘साहू’——-
बहुत सुन्दर ग़ज़ल, अरविन्द जी.
साहू जी , बहुत अच्छा लिखा है . मज़ा आ गिया , कविता में जान है .