उपन्यास : शान्तिदूत (तेंतीसवीं कड़ी)
अतिथि शाला में सात्यकि और अपने सारथी के निवास की व्यवस्था देखकर कृष्ण अकेले ही अपनी बुआ कुंती से मिलने महामंत्री विदुर के निवास पर गये, जो नगर के बाहरी क्षेत्र में साधारण सा घर था। कुंती को विदुर से यह तो पता चल गया था कि कृष्ण शान्ति के लिए प्रयास करने हस्तिनापुर आ रहे हैं। लेकिन कृष्ण ने विदुर के निवास पर अपने आने की कोई सूचना उनको नहीं दी थी, इसलिए उनके स्वागत की वहां कोई तैयारी नहीं थी। कुंती को यह तो विश्वास था कि कृष्ण उनसे मिलने अवश्य आयेंगे, लेकिन उन्होंने सोचा था कि वे सूचना देकर आयेंगे। परन्तु कृष्ण बिना सूचना दिये ही वहां पहुँच गये। दरवाजे से बाहर से ही उन्होंने धीरे से मधुर स्वर में पुकार लगायी- ‘बुआ!’
कुंती उस समय किसी सोच में मग्न थीं। अचानक कृष्ण की आवाज सुनकर उनको अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। लेकिन कृष्ण का स्वर पहचानने में किसी भूल का कोई कारण नहीं था। अतः वे तत्काल उठकर दौड़ पड़ीं और दरवाजे पर कृष्ण को देखकर उन्होंने कहा- ‘कन्हैया!’। कृष्ण दरवाजे के भीतर आकर उनके चरणस्पर्श करने के लिए झुके परन्तु उन्होंने कृष्ण को बीच में ही रोक लिया और इसके साथ ही उनको अपने प्रगाढ़ आलिंगन में कस लिया। कृष्ण भी उनके कंधे से लग गये। कुंती बड़े स्नेह से कृष्ण की पीठ पर हाथ फेर रही थीं और बालों को सहला रही थीं। उनके नेत्रों से खुशी के आंसू झर रहे थे, जो कृष्ण की पीठ पर टपक रहे थे।
देर तक आलिंगन में कसने के बाद उन्होंने कृष्ण को अपने बाहुपाश से मुक्त किया। कृष्ण का मुख अपने हाथों में लेकर वे देखने लगीं। भावनाओं के आवेग में उनके मुख से कोई बोल नहीं फूट रहा था। किसी तरह स्वयं को संयत करके उन्होंने कृष्ण को अपने सामने आसन पर बैठाया, फिर पूछा- ‘गोविन्द, कुछ खाया है कि नहीं?’
‘आपके हाथ से खाऊंगा बुआ। इसीलिए तो आया हूँ।’
यह सुनकर कुंती धक से रह गयीं। उनको लेशमात्र भी आशा नहीं थी कि राजकीय अतिथि होने पर भी कृष्ण भोजन के लिए उनके पास आयेंगे। इसलिए उन्होंने कोई व्यवस्था भी नहीं की थी। इसलिए उन्होंने पूछा- ‘क्या दुर्योधन ने तुम्हें भोजन भी नहीं कराया?’
‘युवराज ने कहा था, बुआ, पर मुझे तो आपके हाथ का भोजन चाहिए।’ वे इस बात को छिपा गये कि उन्होंने दुर्योधन का भोजन का निमंत्रण ठुकरा दिया था।
विदुर पत्नी भी तब तक वहां आ गयी थीं। कृष्ण ने उनको भी विनम्र अभिवादन किया। वे बोलीं- ‘घर में कुछ फल-फूल हैं, मैं लेकर आती हूँ।’
कृष्ण ने कहा- ‘वाह, वही मेरे लिए पर्याप्त हैं।’
शीघ्र ही विदुर पत्नी कुछ फल लेकर वहां आ गयीं। फलों में केवल केले ही थे। उनको ही छीलकर वे कृष्ण को खिलाने लगीं। कृष्ण को खिलाने में वे इतनी भाव-विभोर हो गयीं कि कई बार वे केले का गूदा फेंककर छिलका ही कृष्ण को पकड़ा देती थीं और कृष्ण बिना कुछ कहे उनको भी उदरस्थ करते जा रहे थे, जैसे अत्यन्त सुस्वादु भोजन कर रहे हों। अपनी इस गलती का पता विदुर पत्नी को तभी चला, जब कृष्ण का पेट भर गया और वे केले के छिलके फेंकने चलीं। उन्होंने देखा कि छिलकों में केले के गूदे भी पड़े हुए थे। उनको अपनी असावधानी पर बहुत लज्जा आयी, परन्तु यह सोचकर वे पुलकित हो गयीं कि अपनी इस भक्तिन का मान रखने के लिए कृष्ण किस प्रकार छिलकों को भी ग्रहण कर गये। कृष्ण का यह विशुद्ध प्रेम ही सबको बांध लेता था।
जब कृष्ण भोजन कर चुके, तो कुंती ने अपने पुत्रों का कुशल क्षेम पूछा। इस पर कृष्ण ने कहा- ‘बुआ, सभी भाई और पांचाली पूर्णतः कुशल हैं। वे आपको चरणस्पर्श कह रहे थे और आपका आशीर्वाद मांगा है।’
‘मेरा आशीर्वाद सदा उनके साथ है, गोविंद! उन्होंने बहुत कष्ट उठाये हैं, लेकिन अब उनके कष्टों का अन्त हो जाना चाहिए।’
‘वह तो होगा ही, बुआ। पांडवों को उनका इन्द्रप्रस्थ मिल जाएगा।’
‘लेकिन क्या दुर्योधन सरलता से पांडवों का अधिकार दे देगा?’
‘नहीं बुआ, अगर वह इतना ही न्यायपूर्ण होता, तो समस्या ही क्या थी? वह तो युद्ध के लिए लालायित है।’
‘फिर तुम यहाँ क्या करने आये हो?’
‘मैं उनको समझाने आया हूँ कि युद्ध का हठ छोड़ दें और पांडवों को उनका राज्य लौटा दें।’
‘क्या तुम्हारे कहने से दुर्योधन पांडवों का राज्य लौटा देगा?’
‘इसकी संभावना बहुत कम है। फिर भी मैं प्रयास करने आया हूँ, जिससे कि कोई यह न कहे कि कृष्ण ने शान्ति का प्रयत्न नहीं किया।’
यह बात सुनते ही कुंती के मन में भी वे प्रश्न उठ खड़े हुए जो पांडवों और पांचाली के मन में भी उठे थे। बोली- ‘अगर दुर्योधन ने तुम्हारा प्रस्ताव मान लिया, तो पांडवों की प्रतिज्ञाओं का क्या होगा? क्या पांचाली के केश सदा खुले रहेंगे?’
‘इसकी चिन्ता मत करो, बुआ। सारी प्रतिज्ञाएं अवश्य पूरी होंगी। दुर्योधन मेरे प्रस्ताव को नहीं मानेगा, यह मुझे भली प्रकार ज्ञात है।’ मुस्कराते हुए कृष्ण ने कहा।
‘गोविन्द, एक बात कहूँ? मुझे इस दुर्योधन पर लेशमात्र भी विश्वास नहीं है। मुझे भय है कि वह राजसभा में तुम्हें अपमानित करने और शारीरिक हानि पहुंचाने की चेष्टा न करे।’
कृष्ण इस संभावना पर पहले ही विचार कर चुके थे और उन्होंने बचाव का प्रबंध भी कर लिया था। लेकिन यह बात वे बुआ को बताना नहीं चाहते थे, ताकि वह यह न समझे कि मैं भी भयभीत हो गया हूँ। प्रकट रूप में वे हँसकर बोले- ‘बुआ, जब तक आपका आशीर्वाद मेरे साथ है, तब तक मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।’
‘फिर भी तुम बहुत सावधान रहना।’ कुंती की चिन्ता समाप्त नहीं हुई थी।
‘अवश्य, बुआ, आप कोई चिन्ता मत कीजिए। मैं सावधान रहूँगा।’ इन शब्दों से कुंती को कुछ सान्त्वना मिली। फिर उन्होंने कहा- ‘कल राजसभा से मेरे पास अवश्य आना। मिलकर जाना।’ कृष्ण ने स्वीकृति में सिर हिलाया।
फिर उन्होंने जाने की अनुमति मांगी। भरे मन से कुंती ने उनको जाने की अनुमति दी, यद्यपि वे चाहती थीं कि कृष्ण यहीं पर रात्रि विश्राम करें। कुंती और विदुर पत्नी दोनों को पुनः प्रणाम करके कृष्ण अतिथिशाला को चल दिये।
(जारी…)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
विजय भाई , कृष्ण तो यों ही बहुत बड़े गियानी थे , फिर भी अछे लोगों की यही तो खासिहत होती है कि वोह आख़री समय तक कोशिश करते हैं कि इतना बड़ा नुक्सान होने से बच जाए . पता तो उनको था कि दुर्योधन लड़ाई के लिए तैयार है लेकिन फिर भी वोह अपने आप को दोषों से मुक्त करना चाहते थे . विजय भाई मन में एक और सवाल भी हमेशा रहता है कि कृक्षेतर में इस लड़ाई का कोई सबूत मिला है ? दुसरे यह सभ वाकिआत कितने हज़ार वर्ष पहले हुए होंगे ? यों तो लोग सतयुग दुआपर और त्रेता युग की बात करते हैं लेकिन यह कोई पैमाना नहीं है इतहास का समय नापने का . किया आप रौशनी डालेंगे इस पर ? धन्यवादी हूँगा .
भाई साहब, महाभारत का युद्ध हुआ था, इसमें कोई संदेह नहीं है. वह आज से लगभग 5150 साल पहले हुआ था. इस युद्ध से पहले का इतिहास पूरा नहीं मिलता, लेकिन इसके बाद का एक-एक दिन गिना हुआ है और सारा इतिहास मिलता है.
धन्यवाद भाई साहिब , और युद्ध में टूटे हुए हथिआर यानी रथों के कोई कल पुर्जे या तीरों के कोई निशाँ मिले हैं ?
मेरी जानकारी में ऐसा नहीं है. पर पांच हज़ार साल पुरानी ऐसी चीजें अगर होंगी भी तो जमीन में काफी नीचे होंगी. क्योंकि धुल की परत प्रिथ्वी पर चढ़ती रहती है. वैसे कुरुक्षेत्र में एक संग्रहालय है. शायद उसमें कुछ हो.
पहले वहां सरस्वती नदी की धारा बहती थी, जो अब लुप्त हो गयी है. संभव है बहुत सी वस्तुएं उसके साथ ही मिटटी में दब गयी हों.