उपन्यास : शान्तिदूत (छत्तीसवीं कड़ी)
बोलने के लिए अवसर मिलते ही कृष्ण ने महाराज को सम्बोधित करके किन्तु राजसभा की ओर मुख करके कहना प्रारम्भ किया- ‘महाराज! मैं महाराज युधिष्ठिर के प्रतिनिधि के रूप में इस राजसभा में आया हूँ।’ इतना कहकर उन्होंने समस्त राजसभा की ओर देखा, जैसे उन्होंने कोई रहस्योद्घाटन किया है। लेकिन किसी के चेहरे पर कोई भाव न पाकर उन्होंने आगे कहना जारी रखा- ‘इसी राजसभा में उनको द्यूत खेलने के लिए बाध्य किया गया था, जिसमें वे अपना सर्वस्व हार गये थे।’
कृष्ण की यह बात सुनकर दुर्योधन चुप नहीं रह सके और खड़े होकर बिना किसी की अनुमति लिए बोले- ‘आप गलत बोल रहे हैं, वासुदेव! उन्होंने द्यूत अपनी इच्छा से खेला था, किसी ने बाध्य नहीं किया था।’
‘यह सत्य नहीं है, युवराज! आप भी जानते हैं कि महाराज युधिष्ठिर को हस्तिनापुर के महाराज ने आदेश देकर द्यूत खेलने के लिए बुलाया था। यह उनकी सदाशयता थी कि उन्होंने महाराज के प्रति सम्मान दिखाते हुए इस अनुचित आदेश का भी पालन किया।’
यह सुनते ही सारी राजसभा को सांप सूंघ गया। अभी तक किसी ने यह बात स्पष्टतया नहीं कही थी कि युधिष्ठिर को द्यूत खेलने के लिए बाध्य किया गया था और वह भी महाराज धृतराष्ट्र के आदेश द्वारा। कृष्ण ने भरी राजसभा में यह कहकर जैसे उनकी कलई उतार दी।
कृष्ण आगे कहते गये- ‘उस समय मैं यहां नहीं था और न मुझे ज्ञात था कि इस प्रकार महाराज द्वारा महाराज युधिष्ठिर को द्यूत खेलने के लिए बुलाया गया है। अगर मैं यहां होता, तो यह द्यूत क्रीड़ा कभी न होने देता, भले ही मुझे बल प्रयोग क्यों न करना पड़ता।’
कृष्ण द्वारा बल प्रयोग की उल्लेख करते ही दुर्योधन और उनके साथियों की भौंहें तन गयीं। दुर्योधन खड़ा होकर गुर्राते हुए बोला- ‘आप बल प्रयोग की धमकी क्यों दे रहे हैं, कृष्ण?’
‘मैं धमकी नहीं दे रहा हूँ, युवराज’ कृष्ण मधुर स्वर में बोले, ‘मैं तो उस समय की बात कर रहा हूँ कि अगर मैं यहाँ होता तो कभी द्यूत क्रीड़ा न होने देता। आज उसी क्रीड़ा के कारण कुरुवंश और समस्त आर्यावर्त पर विनाश के बादल छाये हुए हैं।’ दुर्योधन दांत पीसते हुए अपने स्थान पर बैठ गया।
राजसभा में तनाव बढ़ता देखकर महाराज धृतराष्ट्र बोल पड़े- ‘वासुदेव, अब पुरानी बातों को स्मरण करने से क्या लाभ? जो हो गया वह लौटाया नहीं जा सकता। आप वह प्रस्ताव प्रस्तुत कीजिए, जो आप पांडवों की ओर से लाये हैं।’
‘अवश्य महाराज, मैं उसी पर आ रहा हूँ।’ कृष्ण ने अपना स्वर और मधुर कर लिया। फिर बोले- ‘उस द्यूत क्रीड़ा की अन्तिम शर्त के रूप में पांडवों को 12 वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास दिया गया था और यह वचन दिया गया था कि सफलतापूर्वक वनवास और अज्ञातवास पूरा करने पर उनको उनका राज्य वापस मिल जाएगा।’
यह कहकर उन्होंने फिर राजसभा में सभी पर दृष्टि डाली। कोई कुछ नहीं बोला, लेकिन अधिकांश के सिर सहमति में हिल रहे थे। कुछ क्षण रुकने के बाद कृष्ण ने आगे कहा- ‘अब जबकि पांडवों ने 12 वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास सफलतापूर्वक पूरा कर लिया है, तब मैं इस महाराज और राजसभा में उपस्थित सभी महानुभावों से निवेदन करता हूँ कि पांडवों को उनका इन्द्रप्रस्थ राज्य लौटा दिया जाये और इस घटना का पटाक्षेप किया जाये। यही मेरा प्रस्ताव है।’ यह कहकर कृष्ण अपनी जगह बैठ गये।
कृष्ण के बैठते ही युवराज दुर्योधन पुनः खड़े हो गये और बोले- ‘पांडवों ने अज्ञातवास पूरा नहीं किया है। उससे पहले ही वे पहचान लिये गये हैं। इसलिए द्यूत की शर्तों के अनुसार उनको पुनः 12 वर्ष के वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास पर चले जाना चाहिए।’
कृष्ण ने उठकर कहा- ‘युवराज को तथ्यहीन बात कहना शोभा नहीं देता। क्या आपने अपने कालगणना करने वालों से पूछ लिया है कि पांडवों के सामने आने से पहले ही 13 वर्ष की अवधि पूरी हो गयी थी या नहीं? महामंत्री विदुर यहां उपस्थित हैं, वे इसकी पुष्टि कर सकते हैं।’
यह सुनकर महामंत्री विदुर ने स्पष्ट शब्दों में कहा- ‘युवराज, पांडवों ने 12 वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास सफलता से पूरा कर लिया है और वे अज्ञातवास में पहचाने नहीं जा सके हैं। इसलिए द्यूत की सभी शर्तें पूर्ण हो गयी हैं। अतः वासुदेव का प्रस्ताव मान लेना चाहिए।’
यह सुनकर दुर्योधन को क्रोध चढ़ गया। वह विदुर को सम्बोधित करते हुए जोर से बोले- ‘महामंत्री विदुर, आप प्रारम्भ से ही पांडवों का पक्ष लेते रहे हैं और मेरे प्रति द्वेष रखते हैं।’
विदुर इस आक्षेप का कोई उत्तर देना चाहते थे, परन्तु महाराज धृतराष्ट्र ने हस्तक्षेप करते हुए कहा- ‘शान्त हो जाओ, दुर्योधन। महामंत्री के ऊपर ऐसा आरोप लगाना अनुचित है। बैठ जाओ और वासुदेव के प्रस्ताव पर विचार करो।’
‘मुझे यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं है। मैं इसे पहले ही ठुकरा चुका हूँ।’ दुर्योधन ने स्पष्ट कर दिया।
‘प्रस्ताव ठुकराने से पहले भली प्रकार सोच लीजिए, युवराज!’ यह कृष्ण की वाणी थी, ‘महाराज युधिष्ठिर ने यह भी कहा है कि यदि उनका राज्य न्यायपूर्वक नहीं लौटाया जाता, तो वे अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए हस्तिनापुर के विरुद्ध युद्ध करने को बाध्य होंगे।’
‘हा… हा… हा…. युद्ध से यहां कौन डरता है। वे वन-वन घूमने वाले और भीख मांगने वाले क्या युद्ध करेंगे? जाकर उनसे कह दीजिए, कृष्ण, कि हस्तिनापुर के योद्धाओं ने हाथों में चूड़ियां नहीं पहन रखी हैं।’
(जारी…)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
विजय भाई , कृष्ण को तो पहले ही अनुमान था कि दुर्योधन नहीं टलेगा . कुछ उस को यह भी अभिमान होगा कि पांडवों के पास कौन सी बड़ी फ़ौज और हथिआर होंगे . उस की यही सोच होगी जैसे उस ने दिल की बात कह ही दी कि उन भिखारिओं के पास किया है . बहुत दफा ऐसा होता है कि बड़े बड़े योधे भी दुश्मन को कमज़ोर आंक लेते हैं . यही बात बंगला देश की लड़ाई में हुई थी . यैया खान के लफ्ज़ थे इंडिया को teach indians a lesson to learn for one thousand years. और वोही लोगों ने इंडियन फ़ौज के आगे घुटने टेक दिए .कहानी दिलचस्प होती जा रही है.
हा…हा… सही कहा, भाई साहब! आभार !